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सूत्र संवेदना करते है । उत्सव - महोत्सव की भी आकांक्षा नहीं रखते । अपनी कर्मनिर्जरा के लिए यदि कोई गुणवान भक्ति करे, महोत्सव आदि करे, तो उसका निषेध भी नहीं करते । मुनि भगवंत मुख्य मार्ग से कर्मनिर्जरा का कारण बने, सदैव वैसी ही क्रिया करते हैं ।
दस प्रकार के यतिधर्म का पालन करते हुए, १८००० शीलांग34 को वहन करते हुए, इच्छा - मिच्छादि दस प्रकार की समाचारी का पालन करते हुए ये मुनि भगवंत उत्तम चित्तवृत्ति को धारण करते हैं । ऐसे उत्तम चित्तवृत्ति के धारक मुनि को हृदयस्थ करके उनके प्रति अत्यंत बहुमान भाव प्रगट करके, भाव से उनको नमस्कार करने से अपने हृदय में विद्यमान संसार के भाव धीरे-धीरे नाश होते हैं और आत्मा संयमभाव के अभिमुख होती है ।
साथ भगवंत के २७ गुण :
शास्त्र में सामान्य से साधु भगवंतों के २७ गुण कहे हैं । पांच महाव्रतों को धारण करनेवालें", रात्रि भोजन विरमण व्रत को पालनेवाले, छः काय 34.अट्ठारह हजार शीलांग : गाथा - "जे नो करंति मणसा, निज्जियआहारसन्नसोइंदी
पुढवीकाय समारंभे, खंतिजुआ ते मुणी वंदे ।" समझ : पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अजीवकाय इन १० काय को ।। क्षमा, मार्दव, ऋजुता, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन, ब्रह्मचर्य इन १० यतिधर्म से गुणाकार करने पर १०० होते हैं। इसके बाद उसको स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, श्रोतेन्द्रिय इन पाँचों से गुणाकार करने पर ५०० होत्ने हैं। । इसको आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा इन ४ से गुणाकार करने पर २००० होते हैं । इन्हें मन, वचन, काय से गुणाकार करने पर ६००० होते हैं । उनको करना-करमाना-अनुमोदना - इन तीन करण के साथ गुणाकार करने पर १८००० होते हैं। (१० काय x १० यतिधर्म x ५ इन्द्रिय x ४ संज्ञा x ३ योग x ३ करण = १८०००)