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श्री नमस्कार महामंत्र
‘सर्व साधु' शब्द से सामायिकादि विशेषण से युक्त भ्रमंत्त, अप्रमत्त, जिनकल्पिक, प्रतिमा कल्पिक, यथाच्छंद कल्पिक, परिहारविशुद्धिकल्पिक, स्थविर कल्पिक, स्थित कल्पिक, कल्पातीत, प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध, बुद्धबोधित, भरत वगैरह क्षेत्र के एवं सुषमा, दुषमा वगैरह काल के सर्व प्रकार के साधुओं को समझना है ।
साधु का स्वरूप :
जो अनंतज्ञानादि स्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रकट करने की साधना करते हैं, वे साधु कहलाते हैं । जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं एवं उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठि हैं ।
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साधु भगवंत ४२ दोषों से रहित शुद्ध आहार की गवेषणा करते हैं । वे पाँचों इन्द्रियों के २३ विषयों 33 एवं उनके २५२ विकारों के वश नहीं होते । षट्काय जीवों का रक्षण वे अपने प्राण से भी अधिक करते हैं एवं दूसरों से भी करवाते हैं । सत्रह भेद से विशिष्ट ऐसे संयम की आराधना करते हैं । सर्व जीवों पर निरंतर दयाभाव रखते हैं । ब्रह्मचर्य की ९ प्रकार की गुप्ति का पालन करते हैं तथा बारह प्रकार के तप में पुरुषार्थ करते हैं । सदैव आत्मकल्याण का ही लक्ष्य रखते हैं तथा जनरंजन एवं लोकपूजन की कामना से सर्वथा विरक्त रहते हैं ।
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साधु भगवंतों का भी मुख्य लक्ष्य सिद्ध अवस्था ही है । सिद्ध अवस्था संसार के तमाम भावों से अलग है । इसलिए मुनि भी संसार के तमाम भावों से मन को अलिप्त रखने के लिए हमेशा मेहनत करते हैं । सिद्ध अवस्था में चेतना संपूर्ण निराकुल होती है । इसी कारण से मुनि किसी भी संयोग में मन आकुल-व्याकुल न बने, इसके लिए सतत जागृत रहते हैं । ज्यादातर मुनि गुप्ति में ही रहते हैं । जरूरत पड़ने पर समिति का आश्रय लेकर कार्य करते हैं । अनावश्यक लोगों का आवागमन वे पसंद नहीं 33. इन्द्रियों के २३ विषय और उनके विकारों की विचारणा पंचिदिय सूत्र में दी गई है ।