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सूत्र संवेदना
'नमो उवज्झायाणं' बोलते समय करने योग्य भावना :
यह पद बोलते हुए उपाध्याय भगवंतों के गुणों को याद करके उनको वंदन करते हुए साधक सोचता है कि,
“धन्य हैं उपाध्याय भगवंत ! वे ज्ञान के भंडार हैं, फिर भी उनमें कभी भी मान का अंश भी नहीं होता । गच्छ के मूलाधार हैं, फिर भी सत्ता जताने की कोई इच्छा नहीं होती । आचार्य भगवंत के प्रति उनका विनय, गच्छ के प्रति उनका वात्सल्य एवं ज्ञानप्रदान करने का उनका बड़ा योगदान देखते हुए मस्तक
अहोभाव से झुक जाता है । हे भगयंत ! इस भव में औदार्य, औचित्य वगैरह आप जैसी गुणसंपत्ति प्राप्त करने का तो मेरा सामर्थ्य नहीं है तथा सौभाग्य भी नहीं है। इसीलिए आपसे एक प्रार्थना करता हूँ, भगवंत ! मेरे मान को तोड़ने में एवं विनय गुण प्रकट करने में आप मेरी सहायता करें ।"
नमो लोए सव्व - साहूणं 32 - लोक में स्थित सभी साधु भगवंतों को नमस्कार हो ।
'लोए' पद का अर्थ 'लोक में' ऐसा होता है 'लोक्यतेऽसौ इति लोकः '- जो दिखता है, जो जाना जाता है वह लोक । जीव समूह जिसमें रहें अथवा धर्मास्तिकाय आदि पाँच अस्तिकाय जहाँ होते हैं, उसे लोक कहते हैं । इस प्रकार अर्थ करने से चौदह राजलोक में जितने क्षेत्र हैं, उन्हे लोक कहते
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हैं । परन्तु साधु भगवंत १४ रौजलोक में नहीं रहते । वे तो मात्र २ /, द्वीप में ही रहते हैं । इसलिए, यहाँ लोक शब्द से मात्र मनुष्यलोक ग्रहण करना है। लब्धिसंपन्न साधु भगवंत मनुष्यलोक के बाहर आ-जा सकते हैं; परन्तु वहाँ रहते नहीं हैं, इसलिए साधु मनुष्यलोक में रहते हैं; वैसा कहा है 1
जाता
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32.यह पाँचवां पद पाँचवें अध्ययनरूप है । उसमें 'नमो', 'लोए', 'सव्व' एवं 'साहूणं' ये चार पद एवं ९ अक्षर हैं ।'