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श्री नमस्कार महामंत्र .. ३७ नमस्कार भाव नमस्कार रूप बनता है । इसलिए, “नम्री आयरियाणं" पद बोलते हुए भूतकाल में हो चुके, वर्तमान में विचरते हुए एवं भविष्य में होनेवाले गुणसंपन्न आचार्य भगवंतों को ध्यान में लेकर, उनमें रहे हुए गुणों की प्राप्ति एवं स्वदोषनाश के लिए प्रणिधानपूर्वक भावाचार्य को नमस्कार करना है । आचार्य शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ :
आचार्य शब्द के अर्थ भी शास्त्र में भिन्न भिन्न प्रकार से बताए गए हैं - १. आ = मर्यादापूर्वक चर्यते = सेवा की जाती है । जैनशासन के अर्थ के उपदेशक होने के कारण तत्त्व के अभिलाषी जिनकी विनयपूर्वक सेवा करते हैं, वे आचार्य हैं ।
२. आ = मर्यादा से, चार = विहार । जो मासकल्प आदि मर्यादा से विहार रूप आचार के पालन में चतुर हैं, तथा जो अन्य को भी उस आचार पालन का उपदेश देते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं ।
ऐसे गुणसंपन्न आचार्य भगवंत श्री अरिहंत देव द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए बताए गए आचारों का यथार्थरूप से पालन करते हैं और करवाते हैं, इसलिए आचार्य भगवंत नमस्करणीय हैं । आचार्य का ध्यान किस वर्ण से और क्यों:
आचार्य का ध्यान पित्त वर्ण से करना चाहिए क्योंकि१. जैनशासन के दीपक समान हैं । आचार्य दीपक की लौ (शिखा) पित्तवर्णी होती हैं । इसलिए पित्त (पीले) वर्ण से इस पद की आराधना होती हैं।
२. आचार्य जैनशासन में राजा तुल्य है । जैसे राजा सुवर्ण अलंकारों से विभूषित होकर पित्तवर्ण जैसे दीखते हैं, वैसे ही आचार्य छत्तीस गुण रूप अलंकार से विभूषित होने के कारण उनका ध्यान पित्तवर्ण से किया जाता है।
३. जैसे दुश्मनों पर विजय प्राप्त करनेवाले को हल्दी का उबटन लगाया जाता है, वैसे ही आचार्य भगवंत भी परवादी को जीतकर विजय प्राप्त करते हैं, इसलिए उनका ध्यान पित्तवर्ण से किया जाता है ।