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सूत्र संवेदना सिद्ध के आठ गुणों का वर्णन :
आठ कर्मों के क्षय से सिद्ध आठ गुणों से युक्त बनते हैं । १. ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अनंतज्ञान प्राप्त होता है । इसके द्वारा वे तीनों कालों के, चराचर जगत के, रूपी - अरूपी पदार्थों को तथा उनके सर्व पर्यायों को अपने हाथ में रहे हुए आँवले (या जल की बुंद) की तरह विशेष प्रकार से पहचान सकते हैं।
२. दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से अनंत दर्शन उत्पन्न होता है । इसके कारण वे सर्व पदार्थों का सामान्य स्वरूप देख सकते हैं ।
३. वेदनीय कर्म के क्षय से अव्याबाध सुख की प्राप्ति होती है। वेदनीय कर्म शरीर रूप पुद्गल को शाता-अशाता उत्पन्न करवाता है । सिद्ध भगवंत को वेदनीय कर्म का अभाव होने के कारण शरीरकृत कोई पीड़ा नहीं होती और ऐसी पीड़ा का नाश होने के कारण ही वे अव्याबाध (बाधारहित) आत्मिक सुख का अनुभव करते हैं । ___४. मोहनीय कर्म के क्षय से अनंत चारित्र की प्राप्ति होती है । मोहनीय कर्म सत्श्रद्धा और सत्प्रवृत्ति का बाधक है, उसके क्षय से आत्मा को अनंत चारित्र गुण की प्राप्ति होती है । इस गुण के कारण वे सदैव अपने आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं । मोहनीय कर्म के अभाव से स्व स्वरूप में रमण करते हुए आत्मा में वीतरागता का गुण प्रकट होता है ।
५. आयुष्य कर्म के क्षय से अक्षय स्थिति की प्राप्ति होती है । जैसे किसी व्यक्ति के पैर में जंजीर डाल दी जाए, तो जंजीर उस व्यक्ति को एक स्थान पर जकड़ कर रखती है, वैसे ही यह कर्म भी जीव को भिन्न-भिन्न गति में मर्यादित समय तक अपने शिकंजे में रखता है और आयुष्य पूर्ण होने पर जीव दूसरी गति में चला जाता है । आयुष्यकर्म के क्षय से सिद्धावस्था में क्षय न होनेवाली स्थिति अर्थात् अक्षयस्थिति प्राप्त होती है ।
६. नामकर्म के क्षय से अरूपी अवस्था पैदा होती है । इस कर्म के कारण ही जीव अलग-अलग रूप धारण करता है और उसके द्वारा ही सुखी और दुःखी होता है और उसके क्षय से अरूपी अवस्था प्राप्त होती है।