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श्री नमस्कार महामंत्र
इसलिए आप मेरे परम उपकारी हैं, वंदनीय हैं, स्तवनीय हैं, चिंतनीय हैं, माननीय हैं... आप ही ध्यान करने योग्य हैं । यह जानता हूँ फिर भी मानादि दोषों के कारण नम्र बनकैर आप की वास्तविक स्तवना आदि नहीं कर सकता । आप के जैसा सुख नहीं पा सकता ! हे प्रभु! मेरे दोषों को बताकर उन्हें दूर करने का सामर्थ्य आप मुझमें प्रकट करें, यही अभ्यर्थना है ।'
नमो सिद्धाणं 2 2 - सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो ।
जिन्होंने परम आनंदरूप, महोत्सवरूप, महाकल्याणरूप, अनुपम सुख को शुक्ल ध्यान एवं योगनिरोध जैसे महाप्रयत्न से सिद्ध किया हो, उनको सिद्ध कहते हैं । यह सुख सिद्ध परमात्माओं ने आठ प्रकार के कर्मों को क्षय करके प्राप्त किया है । कर्म से मुक्त होने के कारण उनको जन्म नहीं लेना पड़ता या शरीर के पिंजरे में रहना नहीं पड़ता । शरीर न होने के कारण शरीर से होनेवाले रोग-शोक-जरा-मरण जैसे कोई दुःख उनको कभी भी सहन नहीं करने पड़ते । केवलज्ञानादि गुणों के स्वामी होने के कारण उनको कुछ जानने के लिए मन की भी आवश्यकता नहीं पडती । मन नहीं होने के कारण उन्हें मानसिक आधि या उपाधि की भी कोई पीड़ा नहीं होती । संक्षेप में, सिद्ध भगवंत सदा सुखी होते हैं । संसार के तमाम भावों
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एवं तमाम प्रवृत्तियों से पर उनका चैतन्य स्वरूप मात्र है । उनकी चेतना निराकुल एवं स्वस्थ परिणामवाली होती है । यह निराकुल स्थिर चेतना ही सिद्ध परमात्मा के अनंत सुख का कारण है । ऐसी निराकुल चेतना - (शुद्धस्वरूप) आठ कर्मों के क्षय से प्रकट होती है एवं उसी कारण सिद्ध के जीवों में आठ गुण प्रकट होते हैं
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22. यह दूसरा पद दूसरे अध्ययन रूप है । इसमें 'नमो' एवं 'सिद्धाणं' ऐसे दो पद तथा कुल पाँच अक्षर हैं, इसमें 'नमो' अर्थ पूर्ववत् जानना ।
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23. सिद्धाणि परमाणंदमहूसवमहाकल्लाणनिरुवमसोक्खाणि णिप्पकंपसुक्कज्झाणाइअचिंतसत्तिसामत्थओ सजीववीरिएणं जोगनिरोहाइणा महापयत्तेण त्ति सिद्धा ।। - सिरि महानिसीहत्त नित्थि (च्छिन्नसव्वदुक्खा, जाई - जरा - मरण - बंघ - विमुक्का | अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहवंति सासयं सिद्धा ।। ९८८ ।।
आवश्यक निर्युक्ति