________________
श्री नमस्कार महामंत्र
.
२५
७. गोत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है । गोत्रकर्म के कारण जीव को उच्च-नीच (गुरु-लघु) भाव की प्राप्ति होती है । उसके क्षय से अगुरुलघु गुण प्रकट होता है ।
८. अंतराय कर्म के क्षय के कारण अनंतवीर्य पैदा होता है । यह कर्म आत्मा के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के गुण को नाश करता है । जब इस कर्म का नाश होता है, तब आत्मा में अनंत दान, लाभ, भोगादि गुण प्रकट होते हैं । इन गुणों के द्वारा सिद्ध परमात्मा अनंत जीवों को अभयदान देते हैं । उन्हें अनंत गुणों का लाभ होता है । प्राप्त ज्ञानादि गुणों का वे भोग और उपभोग करते हैं और स्वगुणों में ही रमण करने में उनका अनंत वीर्य प्रवर्तित होता है ।।
संक्षेप में, अविनाशी अनंत सुख को धारण करने के कारण सिद्ध परमात्मा भव्य आत्माओं को अतिशय प्रमोद उत्पन्न करवाते हैं । इस प्रकार भव्य आत्मा को वे अत्यंत उपकारक होने के कारण नमस्करणीय24 हैं और भव्य जीवों के लिए आत्मविशुद्धि के अंतिम आदर्शभूत हैं । श्री अरिहंत भगवंत भी अपने निर्वाण के बाद सिद्धावस्था को प्राप्त करते हैं । सिद्धात्मा के सुख का वर्णन :
सिद्ध परमात्मा को जानने के लिए उनके सुख को जानना पड़ता है, उनकी स्थिर-निराकुल चेतना को जानना पड़ता है; परन्तु संसारी जीवों के लिए इस सुख को जानना मुश्किल है । इसलिए उनको वास्तविक सुख कैसा होता है - उसका ज्ञान ही नहीं होता । शांतचित्त से यदि संसारी एवं सिद्ध के सुख की तुलना की जाए, तो बुद्धि में सिद्ध के परम सुख की एक झलक उठ सकती है ।
24.नमस्करणीयता यैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्त तया स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्यादननेन भव्यानामती वोपकार हेतुत्वादिनी ।।
- श्री अभयदेवसूरि रचित भगवतीसूत्र वृत्ति