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श्री नमस्कार महामंत्र
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कहते हैं कि, कर्मरूपी बीज सर्वथा जल जाने से अर्थात् सर्व कर्मों का नाश होने से जिनका भवरूपी अंकुर नहीं उगता अर्थात् जिनका अब कभी जन्म होनेवाला नहीं है, वे अरुहंत कहलाते हैं ।
४. अरहंत : 'रह' अर्थात् एकान्त या गुप्त स्थान तथा “अंत" अर्थात् अंदर का भाग । अतः अरहंत अर्थात् जिनकी दृष्टि में अतिगुप्त ऐसा वस्तुसमूह के अंदर का भाग भी अदृश्य नहीं है याने कि ऐसा एक भी गुप्तस्थान नहीं है, जो वे नहीं जानते । जो सर्वज्ञ हैं, वही अरहंत हैं ।
अथवा 'अरहंताण'21 अर्थात् राग का क्षय होने से किसी भी पदार्थ पर आसक्ति नहीं धारण करने वाले तथा ('रह' धातु का अर्थ 'त्याग करना' करे तो) 'अरहंत' का अर्थ, प्रकृष्ट राग तथा द्वेष के कारणभूत मनोहर विषयों का संपर्क होने पर भी वीतरागता वगैरह जो अपना स्वभाव है, उसका त्याग नहीं करनेवाले ऐसा भी होता है ।
५. अरथान्त : 'रथ' शब्द के उपलक्षण से सर्व परिग्रह का ग्रहण करना है । 'अन्त' अर्थात् मरण और 'अ' अर्थात् 'नहीं' । अर्थात् जिन्हें परिग्रह और मरण तथा उपलक्षण से जिनका पुनर्जन्म भी नहीं है, वे अरथान्त ।
जिज्ञासा : यहाँ 'अरिहंताणं' अर्थात् 'अरिहंतों को' ऐसा बहुवचन का प्रयोग क्यों किया है ?
तृप्ति : अरिहंत एक ही है अर्थात् ईश्वर एक ही है, ऐसा जो मानते हैं, उनके मत का खंडन करने के लिए ऐसे बहुवचन का प्रयोग किया है । अनंतकाल की अपेक्षा से तो अरिहंत अनंत है तथा व्यवहारनय से बहुत से अरिहंतों की पूजा, स्तुति, नमस्कार करने से शुभभावों की वृद्धि होती है
और इस शुभ भाव से विशेष निर्जरारूप फल की प्राप्ति होती है, इसलिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है । 21. अरहंताणं 'त्ति । क्वचिदप्यासक्तिमगच्छदभ्यः क्षीणरागत्वात् (अत्र रहि गतौ) अथवा
अरहयद्भ्यः प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजद्भ्यः इत्यर्थ । (अत्र रह त्यागे)
- आवश्यक नियुक्ति