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सूत्र संवेदना
करके, मार्ग की स्थापना करके, धर्म की देशना देते हुए भव्य जीवों के उपकार के लिए पृथ्वीतल पर जो विचरते हैं, वे अरिहंत कहलाते हैं ।
जिज्ञासा : केवली भगवंतों के चार घातिकर्मों का नाश हुआ है और वह भी धर्मदेशना देते हैं, तो फिर उन्हें अरिहंत क्यों नहीं कहा जा सकता ?
तृप्ति : केवली भगवंत हमेशा देशना दें, ऐसा जरूरी नहीं है । परन्तु अरिहंत भगवंत अपने पूर्व के तीसरे भव में “सवि जीव करूँ शासनरसी" की उच्च भावना भावित करते हैं, उसके प्रताप से तीर्थंकर के अंतिम भव में तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय के समय उन्हें धर्मदेशना देनी ही पड़ती है । इस तीर्थंकर नामकर्म के फलरूप अष्टप्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशयों
जैसी बाह्य ऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं । फिर भी तीर्थंकर नामकर्म का मुख्य फल श्रम का अनुभव किये बिना दिन के पहले और अंतिम प्रहर में धर्मदेशना देना ही है । इसके अलावा केवली भगवंतों को अरिहंत भगवंतों की तरह समवसरण और अष्ट प्रातिहार्य आदि नहीं होते, इसलिए 'अरिहंत' शब्द से यहाँ सामान्य केवली को ग्रहण नहीं किया जाता बल्कि जो शासन की स्थापना करके धर्मदेशना दें, उन तीर्थंकरों को ही ग्रहण किया जाता है। २. अर्हत् : अर्हत् अर्थात् योग्य होना या लायक होना ।
श्री भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में अर्हत् का अर्थ इस प्रकार किया है : जो नरेन्द्रों द्वारा स्तुति, वंदन और नमस्कार के योग्य हैं और जो सुरवरनिर्मित अशोकवृक्षादि आठ महाप्रातिहार्य रूप पूजा-सत्कार के योग्य हैं और जो सिद्धिगमन के योग्य हैं, उनको अर्हत् कहा जाता है ।19
३. अरुहंत : 'रुह' अर्थात् उगना और 'अरुह' अर्थात् न उगना। श्री हरिभद्रसूरि महाराजा पंचसूत्र की टीका में 'अहंताणं20 का अर्थ करते हुए 19.अरिहंति वंदण-नमंसाई, अरिहंति पूय-सक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहंता तेण वुच्चंति ।।९२१ ।।
- - श्री भद्रबाहुस्वामी कृत आवश्यक नियुक्ति 20.न रोहन्ति, न भवाङकुरोदयमासादयन्ति, कर्मबीजाभावादिति अरुहाः । नोंध : अरिहंत के अरुहंताणं-अरहंताणं आदि नाम पाठांतर से प्राप्त हैं ।