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________________ श्री नमस्कार महामंत्र . १९ श्री भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में 'अरिहंत" शब्द का अर्थ करते हुए कहा है कि अप्रशस्त भाव में प्रवर्तित इंद्रियाँ, पाँचों इन्द्रियों के विषयभोग की इच्छाएँ, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय, भूख-प्यास आदि बाईस प्रकार के परिषह, शारीरिक एवं मानसिक दुःख के अनुभव रूप वेदनाएँ तथा मनुष्य, तिर्यंच एवं देवों के द्वारा हुए उपसर्गरूप अंतरंग शत्रुओं का नाश करनेवाले ‘अरिहंत' कहलाते हैं । ___ बाह्य शत्रु जीव की उतनी बरबादी नहीं कर पाते, जितनी रागादि अंतरंग शत्रु करते हैं । इन रागादि अंतरंग शत्रुओं के कारण ही जीव अनंतकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है तथा सतत अशांत और अस्वस्थ रहता है । जैसे राग-द्वेष आदि आत्मा के शत्रु हैं, वैसे ही राग-द्वेष के कारण आत्मा से संबंधित कर्म भी आत्मा के शत्रु हैं, क्योंकि वे आत्मा के ज्ञानादि गुणों का आच्छादन करते हैं । जीव के ज्ञानादि गुणों का आच्छादान ही जीव के लिए अरिभूत है । वैसे तो सभी कर्म शत्रुभूत हैं, फिर भी ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अंतराय कर्म, ये चार घाति कर्म सीधे आत्मिक गुणों पर प्रहार करते हैं, इसलिए उन्हें विशेष शत्रुभूत कहा जाता है । परमात्मा इन घाति कर्म रूप शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं । जिज्ञासा : अरिहंत भगवतों के राग-द्वेष मोहादि नाश होने पर भी अघाति कर्म तो उनके साथ ही होते हैं और ये कर्म ही अरिहंत भगवंतों को संसार में कुछ समय के लिए बांध कर रखते हैं, तो उन कर्मों को शत्रु क्यों नहीं कहा ? तृप्ति : मोह का नाश होते ही जन्म-मरण की परंपरारूप संसार का भी नाश होता है क्योंकि घातिकर्मों का नाश होने से अन्य अघाति कर्म अल्प सामर्थ्यवाले हो ही जाते हैं, इसलिए उनमें आत्मा के गुणों को आच्छादान करने का और कर्म की परंपरा का सर्जन करने का सामर्थ्य नहीं रहता, अतः मोह ही आत्मा का वास्तविक शत्रु है और उसका नाश होने के कारण ही, तीर्थंकर को अरि (शत्रु) के नाशक कहा गया है । घातीकर्म का नाश 18.इंद्रिय-विसय-कसाये, परीसहे वेयणा उवसग्गे । एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति.... ९९९ ।। - आवश्यकनियुक्ति
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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