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श्री नमस्कार महामंत्र
कर लेता है, जिससे देखनेवालों को इस रूप का दर्शन अनि दुर्लभ नहीं रहता और दर्शनाभिलाषी भगवान् को अच्छी तरह से देख सकते हैं।
१९. दुंदुभि: श्री अरिहंत परमात्मा जहाँ विचरते हैं, वहाँ ऊपर आकाश में दुंदुभि की ध्वनि होती है । भगवंत जब विहार करते हैं, तब उनके प्रयाण कालीन कल्याण मंगल ध्वनि करनेवाली सतत गंभीर नाद करती हुई दिव्य दुंदुभि श्री भगवंत के आगे चलती है । उसकी आवाज से ऐसा लगता है मानो 'भगवान जहाँ हों, वहाँ प्राणियों के कर्मजन्य कष्ट कहाँ से हों ?' ऐसी घोषणा हो रही हो ।
१२. तीन छत्र : पृथ्वी, पाताल एवं स्वर्ग इन तीनों के उपर सर्वोपरि साम्राज्य का प्रतीक, शरद् ऋतु के चन्द्र जैसा अत्यंत शुभ्र, लटकती मोतियों की मालाओं की श्रेणियों से अत्यंत मनोरम एवं पवित्र तीन छत्र श्री अरिहंत परमात्मा के ऊपर होते हैं ।
श्री अरिहंत परमात्मा की अनुपस्थिति में इन प्रातिहार्यों का ध्यान परम उपयोगी बनता है । इनसे भगवान के वास्तविक स्वरूप की पहचान होती है, भक्ति भाव में वृद्धि होती है एवं आत्मविशुद्धि के उत्तरोत्तर श्रेष्ठ भाव जागृत होते हैं । श्री अरिहंत का लोकोत्तर स्वरूप, इन अष्ट महाप्रातिहार्यों एवं अतिशयों के ध्यान द्वारा अति स्पष्ट होता है । वस्तु के अमुक ज्ञान बिना ध्यान संभव नहीं है एवं ध्यान से वस्तु का विशेष ज्ञान स्वयमेव ही अंदर से प्रगट होता है । इसलिए जब जब अरिहंत का ध्यान करना हो, तब इन बारह गुणों का अवश्य चिंतन 17 करना चाहिए, इससे धीरे धीरे भगवान की पहचान अपने आप हो जाएँगी । यह महापुरुषों का स्वानुभव है ।
अरिहंत का उपकार :
विश्व संचालन में सूर्य का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उससे भी अनंतगुणा महत्त्वपूर्ण स्थान श्री अरिहंत भगवंत का है, क्योंकि उन्होंने इस 17. समवसरण में चतुर्मुख अरिहंत के ध्यान की विधि गुजराती सूत्र संवेदना - १ में परिशिष्ट-३ में देखें ।