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सूत्र संवेदना केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद पूर्व के तीसरे भव में 'सवि जीव करूँ शासनरसी' की भावना से जो तीर्थंकर नामकर्म निकाचित किया था, उसका विपाककाल आने से परमात्मा जगत् के जीवों पर उपकार करने के लिए संघरूप शासन की स्थापना करते हैं । तीर्थंकर नाम कर्म का उदय प्राप्त होते ही उनको अद्वितीय बाह्य वैभव स्वरूप अष्ट महाप्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय, वाणी के पैंतीस गुण, देवेन्द्रों और नरेन्द्रों की पूजा आदि प्राप्त होते हैं, जिसको देखकर अनेक लोग धर्ममार्ग में आकर्षित होते हैं। इस वैभव का भी उनके मन में कोई मूल्य नहीं होता ।
केवलज्ञानादि आंतरिक गुण और अष्ट महाप्रातिहार्यादि बाह्य वैभव युक्त अरिहंत परमात्मा जितने समय तक उनका आयुष्य कर्म शेष हों, उतने समय तक पृथ्वीतल पर विचरते हैं एवं श्रम वगैरह के अनुभव बिना देशना देकर अनेक भव्य आत्माओं को सन्मार्ग दिखाने का विशिष्ट कार्य करते हैं । सन्मार्ग का प्रदान जैसे परमात्मा करते हैं, वैसे सन्मार्ग का दान अन्य कोई जीव नहीं कर सकता।
अरिहंत का महत्त्व:
अरिहंत भगवंत अंतिम भव में अपने भवोपग्राही कर्मों का क्षय करने के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं तथा देशनादि की प्रवृत्ति करते हैं । छद्मस्थों की हजारों जिह्वा भी उनके गुणों की स्तुति करने के लिए असमर्थ हैं तथा तीर्थंकर को छोड सर्वजीवों के सभी गुण एकत्रित किए जाये, तो भी तीर्थंकर के गुण के अनंतवें भाग की भी तुलना में न आएँ । योग के प्रभाव से प्राप्त होनेवाले अष्ट महाप्रातिहार्य एवं चौंतीस अतिशय रूप उत्तम ऐश्वर्य तीर्थंकर की बाह्य समृद्धि है । बाकी अरिहंत की आंतरिक समृद्धियों की तो योगी भी कल्पना नहीं कर सकतें । इन चौंतीस में से चार12 अतिशय मूल से अर्थात् जन्म से होते हैं, 12.चार मूल अतिशय : (१) अद्भुत रूप : उनकी देह सुगंधित, निरोगी तथा मलादि से रहित होती है । (२) उनका श्वास कमल जैसा सुंगधित होता है । (३) उनके शरीर में मांस एवं रूधिर गाय के दूध जैसा निर्मल एवं दुर्गंध रहित होता है । (४) उनका आहार, निहार (मल त्याग) आदि क्रियाएँ चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देते ।