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श्री नमस्कार महामंत्र
अरिहंत का स्वरूप:
जिस प्रकार महापुरुष होनेवाले बालक के लक्षण शिशुकाल से ही अलग उभर आते हैं, उसी प्रकार अरिहंत परमात्मा संपूर्ण संसार में ही नहीं, परन्तु चरमभवी जीवों में भी सबसे उत्तमोत्तम होते हैं । उनकी प्रकृति अनादिकाल से अलग प्रकार की होती हैं । तीनों लोक में सर्वोत्कृष्ट गुणों का समूह उनमें प्रगट होता है । जिस प्रकार के महान पवित्र प्रशस्त अध्यक्सायों से वे पूर्व के भव में श्री तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना करते हैं, उस प्रकार के श्रेष्ठ अध्यवसाय, दृढता, स्थिरता, सम्यक्त्व, तथा वीर्य वगैरह दूसरे किसी जीव में कभी भी नहीं होते। अरिहंत परमात्मा जन्म से ही तीन प्रकार के निर्मल ज्ञान से युक्त होते हैं । उनका जन्म महावैभव युक्त राजकुल में ही होता है । जन्म से ही इन्द्रों
आदि द्वारा वे पूजे जाते हैं, तो भी ऐसे बाह्य वैभव की उनके मन पर कोई असर नहीं होती, क्योंकि उनमें जन्म से ही विशिष्ट कोटि का वैराग्यभाव होता है ।
बाल्यावस्था में भी उनमें बाह्य और अतरंग शत्रुओं को जीतने के लिए लोकोत्तर सत्त्व होता है । संसार की तमाम प्रवृत्तियों में कहीं भी कषायभाव का स्पर्श न हो, उस तरह जिस संयोग में जो कार्य करने योग्य हो, वह उचित कार्य, वे सदा करते हैं । औचित्य पालन के लिए जरूरी औदार्य, दाक्षिण्य, गांभीर्यादि भाव भी उनमें लोकोत्तर कोटि के होते हैं । __ युवावस्था में निकाचित भोगावली कर्म बाकी हों, तो प्रभु को भोगादि में प्रवृत्त होना पड़ता है । फिर भी वे भोगादि क्रिया में भाव से अलिप्त होते हैं । इसलिए भोगादि की क्रिया भी उनके लिए कर्मनिर्जरा का कारण बनती है । जैसे ही उनके भोगावली कर्म खत्म होते हैं, वैसे ही परमात्मा तृण की तरह संसार का त्याग कर निर्मल संयमजीवन का स्वीकार करते हैं ।
संयम जीवन में उपसर्गों और परिषहों को समभाव से सहन करते हैं । समिति - गुप्ति के पालन में अप्रमत्त भाव से यत्न करके, अरिहंत परमात्मा क्षपकश्रेणी का प्रारंभ करके, केवलज्ञान आदि गुणों को प्राप्त करते हैं ।