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सूत्र संवेदना के गुणों का संवेदनात्मक ज्ञान । पंच परमेष्ठी के गुणों का यथार्थ ज्ञान होने पर जब 'प्रभु ही उत्तमोत्तम हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, संसार के सभी भाव उनके सामने तुच्छ हैं, असार हैं' - ऐसी संवेदनाओं से हृदय भर जाता हो । 'उनको प्राप्त हुए गुणों में ही आनंद है' - ऐसी आंशिक भी अनुभुती होती हो और प्रभु जैसे गुणों को प्राप्त करने का पूर्ण प्रयत्न होता हो याने आत्मवीर्य गुण निष्पत्ति के लिए प्रवृत्त रहता हो; तब ही भाव नमस्कार निष्पन्न हो सकता है।
इसके बिना मात्र, 'नमो अरिहंताणं' वगैरह पद बोलने से, सामान्य ढंग से उसके अर्थ का विचार करने से, शुभ भाव से या शुभलेश्या से भाव नमस्कार निष्पन्न नहीं होता, क्योंकि अर्थ का विचार एक मानासिक व्यायाम है एवं 'मैं ऐसे गुणवान को नमन करता हूँ' ऐसा शुभ अध्यवसाय, यह शुभ लेश्या अवश्य है, परन्तु वह भाव नमस्कार रूप नहीं है । भाव नमस्कार तो इससे भी उपर की अवस्था है । वीतराग ही उत्तमोत्तम सुदेव है एवं उनके अलावा संसार के समग्र भाव तुच्छ, निःसार हैं ।' ऐसे भाव की अतिशयता भाव नमस्कार है । भावनमस्कार के लिए उत्तम पुरुषों में निहित गुणों का संवेदन होना चाहिए, गुणों के प्रति बहुमान होना चाहिए एवं उन गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी होना चाहिए । इसके उपरांत भावनमस्कार के लिए अपनी गुणहीनता की अनुभूति एवं उसके त्याग की इच्छा भी इतनी ही जरूरी है । अरिहंत भगवंत गुणवान हैं एवं मैं गुणहीन हूँ, ऐसा ज्ञान मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की मंदता के बिना सम्भव नहीं है, इसलिए भाव नमस्कार के लिए ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के साथ-साथ मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम भी आवश्यक है ।
इस प्रकार जो अरिहंत भगवंतों को नमस्कार करते हैं, वे तीर्थंकर नामकर्म आदि विशिष्ट पुण्यकर्म का बंध करते हैं एवं पूर्व के बंधे हुए पापकर्म को शिथिल करते हैं । शिथिल बने हुए पापकर्म पुनः विशेष कदर्थना नहीं कर सकते ।