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________________ सूत्र संवेदना लेकर उसका अर्थ करना है । अतः नमो का अर्थ 'नमस्कार हो ' ऐसा होता है । इससे साधक की प्रार्थना सूचित होती है । वह प्रार्थना करता है, - I “हे नाथ ! अंतर में बसी हुई प्रभुता को तत्काल प्रगट करनेवाले सामर्थ्य योग से नमस्कार करने की तो मेरी शक्ति ही नहीं है, पर शास्त्र में बताई १. नामिक, २. नैपातिक, ३. औपसर्गिक, ४. आख्यातिक, ५. मिश्र. १. संज्ञावाचक प्रत्यय से सिद्ध होनेवाले शब्द 'नामिक पद' कहलाते हैं, जैसे अश्व:, घट : २. अव्ययवाची शब्द “नैपातिक पद " कहलाता है । जैसे खलु, ननु । ३. उपसर्गवाचक शब्द " औपसर्गिक पद" कहलाता है, जैसे कि परि, परा ४. क्रियावचक धातुओं से बना हुआ शब्द 'आख्यातिक पद' अथवा क्रियापद कहलाता है, जैसे कि, धावति, पचति । 1 ५. कृदंत-कृत् प्रत्यय एवं तद्धित प्रत्ययों से बने हुए शब्द 'मिश्र पद' कहलाते हैं । जैसे कि, संयत, नायक, पावक [इन पाँच प्रकार के पदों में 'नमो' पद नैपातिक पद है ।] इससे अतिरिक्त क्रिया में प्रत्यय लगाकर जब शब्द बनाए जाते हैं, तो बना हुआ शब्द 'कृदन्त' कहलाता है । जैसे नायक, पाचक इत्यादि । कृदन्तों की दो स्थितियाँ होती हैं - (अ) संबन्धक भूत कृदन्त और हेत्वर्थ कृदन्त अव्यय होते है; इसलिए उनका समावेश " नैपातिक पद" की श्रेणी में होता है । (ब) उपरोक्त दो कृदन्त के सिवाय बाकी के सारे कृदन्त विशेषण होते हैं । इसलिए उन्हें नाम की ही श्रेणी में रखते हैं । नाम (संज्ञा) में प्रत्यय लगाकर जब दूसरा नाम (संज्ञा) बनाया जाता है तब 'तद्धितान्त' शब्द होता है । जैसे कुन्ती, कुन्ती का पुत्र कौन्तेय । राधा राधा का पुत्र राधेय । जिन जिन की परम्परा का व्यक्ति जैन ये 'तद्धितान्त' पद नाम ही होते है । इस तरह 'मिश्र' शब्द जैसा पाँचवा प्रकार होता ही नहीं सिर्फ १. नाम, २. आख्यात, ३. उपसर्ग और ४. निपात ऐसे चार ही प्रकार यास्काचार्य बताते है । 8. इस पर विस्तृत चर्चा सूत्र संवेदना - 'नमोत्थुणं' में मिलेगी । 9. तरतमता के भेद से शास्त्रकारों ने धर्मक्रिया के तीन प्रकार बताए हैं : इच्छायोग, शास्त्रयोग एवं सामर्थ्ययोग : १. इच्छायोग : धर्म करने की तीव्र इच्छा हो, क्रिया संबंधी शास्त्रज्ञान भी हो, तो भी प्रमादादि दोष के कारण शास्त्र में जिस प्रकार से धर्मक्रिया करने को कहा है, पूर्णतया उस प्रकार न कर सके । अमुक प्रकार की कमी रहे, वह इच्छायोग कहलाता है । २. शास्त्रयोग : शास्त्र वचन के अत्यंत बोधवाला, मोहनीय कर्म के नाश से विशिष्ट कोटि की श्रद्धा जिसमें प्रगट हुई, वैसी आत्मा अपनी शक्ति के अनुरूप प्रमादादि भावों को त्याग कर शास्त्र में जो धर्मक्रिया जिस तरीके से करने को कहा है, पूरी क्रिया उसी तरीके से करे, किसी भी तरह की कमी न रहने दे, वह शास्त्रयोग कहलाता है ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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