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श्री नमस्कार महामंत्र
वपन करता है एवं बार-बार ऐसा नमस्कार करने से वह बीज अंकुरित हो, वृद्धि पा कर अंत में मोक्षरूपी फल की प्राप्ति करवाता है ।
'नमो' का अर्थ पूजा भी होता है । पूजा दो प्रकार से संपन्न होती है : द्रव्य संकोच से एवं भाव संकोच से । काया से हाथ, पैर, मस्तक आदि शरीर के अवयवों की विविध क्रियाओं को संकोच करके अर्थात् उन्हें नियंत्रित करके, दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर, पंचांग प्रणिपात वगैरह नम्रता सूचक मुद्राओं को धारण करना, वाणी से नमस्कार के योग्य शब्दोच्चार करना एवं मन में उन शब्दों के अर्थ की विचारणा करना, द्रव्य संकोच है । इसके अलावा, यहाँ वहाँ दौड़ते मन को संकोच करके उसे अरिहंत आदि पँच परमेष्ठि के गुणों में केन्द्रित करना, भाव संकोच है । संक्षिप्त में कहें तो निर्मल मन को परमेष्ठी के गुणों के साथ जोड़ना, वह भाव संकोच है । 'नमो' शब्द प्रार्थना सूचक :
यहाँ प्रयोग किया हुआ 'नमो' शब्द क्रियापद नहीं एक निपात है, इसलिए 'इस शब्द का अर्थ करते समय ‘भवतु = हो' इस क्रियापद को अध्याहार से
6. इत्थ नमु त्ति पयं दव्व-भावसंकोयरूवं पूयत्थं कर सिरनमाई दव्वे मण पणिहाणाई भाव नमो ।।
- आवश्यक नियुक्ति वंदण त्ति सामान्येन वचः कायादिस्तुत्यवनामनादीनि,
- चैत्यवंदन महाभाष्ये 'नमः' इति पूजार्थं, पूजा च द्रव्यभावसङ्कोचः, तत्र करशिरःपादादिसंन्यासो द्रव्यसङ्कोचः । भावसङ्कोचस्तु विशुद्धस्य मनसो नियोग इति । अस्तु' इति भवतु; प्रार्थनार्थोऽस्येति ।
- ललित विस्तरा 7. श्री भगवतीसूत्र की टीका में श्री अभयदेवसूरि कहते हैं : 'तत्र नमः इति नैपातिकं पदं द्रव्यभावसंकोचार्थम् । आह च नेवाइयं पदं दव्वभावसंकोयणपयत्थो । मनःकरचरणमस्तकसुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भवत्वित्यर्थः । यहाँ 'नमो' निपात अव्यय है । निपतन्ति अनेकेषु अर्थेषु इति निपाताः । जिसमें एक अर्थ का नियम नहीं होता अर्थात् जो अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है उसे 'नैपातिक पद' कहते हैं । जिसके द्वारा अर्थ का बोध होता है उसे 'पद' कहते हैं । उसके पाँच प्रकार है :