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सूत्र संवेदना
उनके पास सामायिक पारने की याचना करते हुए कहता है, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन ! सामायिक पारुं ?' अर्थात्, 'इच्छापूर्वक हे भगवंत ! आज्ञा दीजिए कि सामायिक पारुं ?'
यह आदेश सुनकर गुरु भी उसके भाव की वृद्धि के लिए कहते हैं 'पुणो वि कायव्वं' यह सामायिक फिर से करने जैसी है । गुरु के ये शब्द सुनकर हर्षान्वित हुआ श्रावक स्व- शक्ति का विचार करता है । शक्ति नहीं दिखने पर गुरु से कहता है 'यथाशक्ति' आप कहते हैं वैसी सामायिक मुझे भी करनी बहुत पसंद है, परन्तु अभी मेरे संयोग नहीं है, मुझमें सामर्थ्य नहीं हैं, शक्ति एवं संयोग अनुसार मैं दोबारा सामायिक करने का जरूर यत्न करूँगा ।
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फिर अनुज्ञा माँगते हुए कहता है, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक पार्क' अर्थात् इच्छापूर्वक हे भगवंत ! अब सामायिक पारता हूँ ।
इन शब्दों द्वारा गुरु समझ जाते हैं कि, अब तो इस समय सामायिक कर सके ऐसा प्रतीत नहीं होता एवं गुरु सावद्य कार्य की अनुमति नही दे सकते; इसलिए, 'तुम सामायिक भले पार लो,' ऐसा न कहते हुए कहते हैं, 'आयारो न मोत्तव्वो', तुम्हारा संयोग नहीं, उसके कारण तुम्हें अभी तो पारना पड़ रहा है, परन्तु इस सामायिक का आचार छोड़ने योग्य नहीं है । गुरु के वचन सुनकर शिष्य उनको स्वीकार करता हुआ कहता है, 'तहत्ति' अर्थात् आप कहते हैं वैसा ही है - वही सत्य है अर्थात् सामायिक का आचार छोड़ने जैसा नहीं है ।
उसके बाद सामायिक पारने के लिए मंगलार्थक नवकार मंत्र का पाठ बोलकर, सामायिक के महत्त्व को बताने वाला 'सामाइय वयजुत्तो' सूत्र बोलता हैं । इस सूत्र को बोलने द्वारा बार-बार सामायिक करने की भावना के साथ सामायिक में हुई अविधि - आशातना आदि कोई भी दोष लगा हो, तो उसका मिच्छामि दुक्कडं देकर सामायिक व्रत को पूर्ण करता हैं । योग्य तरीके से सामायिक व्रत को पूर्ण करने का नाम ही सामायिक पारना है ।
४. स्थापनाजी स्थापित किए हो तो उसके बाद दायां हाथ सीधा
रखकर एक नवकार गिनकर स्थापनाजी का उत्थापन कर लेना ।