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सामायिक लेने की विधि
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२. इसके बाद खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ____ मुहपत्ती पडिलेहुँ' 'इच्छं' कहकर मुहपत्ती का पडिलेहन करना ।
इसके बाद गुरु भगवंत से आदेश माँगते हैं । 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् मुहपत्ति पडिलेहुं ?' 'इच्छापूर्वक हे भगवंत ! आप आज्ञा दें कि मैं मुहपत्ती का प्रतिलेखन करूँ ?' गुरु कहते हैं, 'पडिलेहेह' अर्थात् तु प्रतिलेखन कर ऐसी अनुमति देते हैं । तब गुरु का आदेश पाकर शिष्य भी यथोचित मुद्रा में बैठकर बाहर से अन्य जीव की यतना हेतु मुहपत्ती एवं अपनी काया का प्रतिलेखन करता है । अपनी आत्मा का प्रतिलेखन करने के लिए वह मुहपत्ती के ५० बोल का चिंतन करता है । इस क्रिया द्वारा किसी भी जीव की विराधना कहीं पर भी मुझ से न हो जाए, वैसे भाव द्वारा साधक अपने अहिंसा के संस्कारों को दृढ करता है । इस कारण ही सामायिक पारकर गृहकार्य या अन्य कार्य में प्रवृत्त हुए श्रावक की तमाम क्रियाएँ दूसरों से अलग होती हैं। तमाम क्रियाओं में अहिंसा का एवं यतना का भाव उसके प्रत्येक व्यवहार में दिखाई देता है । ३. इसके बाद खमासमण देकर आदेश माँगता हुआ साधक पूछता है, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक पारु ?' फिर यथाशक्ति बोलकर और एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक पार्यु ?' ऐसा कहकर 'तहत्ति' कहना । इसके बाद दांया हाथ चरवले के ऊपर रखकर एक नवकार गिनकर
सामाईय वयजुत्तो० सूत्र बोलना । इतनी क्रिया के बाद भी श्रावक का मन ऐसी उत्तम क्रिया का त्याग करने को तैयार नहीं होता, तो भी संसार की अन्य चिंताओं के कारण उसे इन भावों में रहना संभव न लगे, तब वह गुरु के पास जाकर सामायिक पारने की अनुज्ञा माँगता है ।
श्रावक समझता है कि गुणसंपन्न गुरु भगवंत इस कल्याणकारी क्रिया को छोड़ने की अनुमति तो कभी भी नहीं देते, फिर भी उनके प्रति भक्ति से