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सूत्र संवेदना
भगवन् ! सज्झाय करूँ ?” अर्थात् 'भगवंत! मैं स्वाध्याय करूँ ?' गुरु कहते हैं ‘करेह' = कर; तब शिष्य ‘इच्छं' कहकर 'आज्ञा प्रमाण है' ऐसा कहकर स्वाध्याय में कोई विघ्न न आए, इसलिए मंगल स्वरूप तीन नवकार गिनकर स्वाध्याय में स्थिर होता है ।
यहाँ हर एक स्थान पर एक एक कार्य के लिए दो बार आज्ञा मांगी गई है क्योंकि जैनशासन विनय प्रधान है, आज्ञा प्रधान है । कार्य को प्रारंभ करने के पहले उस कार्यसंबंधी इच्छा व्यक्त करने के लिए आदेश-आज्ञा माँगी जाती है और फिर उस कार्य को प्रारंभ करते हुए यह कार्य करता हूँ ।' इस तरीके से कार्य का निवेदन किया जाता है । हर एक आदेश माँगते समय गुणसंपन्न गुरु भगवंत को अपनी नजर के समक्ष रखकर, उनके अधीन रहकर यह कार्य करता हूँ, ऐसा भाव खास रखना चाहिए ।
आज के समय में बहुत से लोगों की यह मान्यता है कि समभाव ही सामायिक है । इसलिए वे मानते हैं कि सर्वत्र सदा समभाव में रहना जरूरी है; पर ऐसी क्रिया करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि, ऐसी क्रिया किए बिना भी भरतादि अनेक आत्माएँ समता रखकर मोक्ष में गई हैं । यह मान्यता योग्य नहीं है । कदाचित् पूर्वभव के संस्कारों से भरत महाराज जैसों को मोक्ष मिल गया हो उतने मात्र से सबको मिल ही जाएगा ऐसा नहीं है । अधिकतर
आत्माओं ने तो विधिवत् सामायिक व्रत को स्वीकार करके ही मोक्ष पाया है । इसलिए, विधिवत् सामायिक का स्वीकार करना ही योग्य है । कोई समझदार व्यापारी 'लक्की ड्रॉ' में पडोसी की करोडों की कमाई देखकर अपना व्यापार नहीं छोड़ देता । उसी तरह जिसको समभाव के संस्कार डालने हो, उसे विधिपूर्वक सामायिक ग्रहण करनी ही चाहिए । ५. सामायिक में प्रयोग किए हुए सूत्रों का अर्थ :
नवकार, पंचिंदिय, इरियावही इत्यादि सूत्र के अर्थ जो इस पुस्तक में दिये हैं, वे उपस्थित होने चाहिए ।