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________________ २६४ सूत्र संवेदना ___ उसके बाद कायोत्सर्ग रूप प्रायश्चित्त के लिए (चंदेसु निम्मलयरा तक) एक लोगस्स के चिंतनपूर्वक २५ श्वासोश्वास प्रमाण कायोत्सर्ग किया जाता है । ___ पापकर्मों के नाश रूप प्रणिधान से जिस कायोत्सर्ग का प्रारंभ किया, उन पापों का नाश होने पर साधक विशेष आनन्द में आ जाता है, जिसे व्यक्त करने के लिए पुनः प्रगट लोगस्स का उच्चारण किया जाता हैं ।। ३. बाद में खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक मुहपत्ती पडिलेहुं ?' गुरु 'पडिलेहेह' कहे तब 'इच्छं' कहकर मुहपत्ती का पडिलेहण करना है । हिंसादि पापों से मलिन हुई आत्मा की विशुद्धि करके मुहपत्ती पडिलेहण की क्रिया की जाती है, यह क्रिया भी गुरुवंदनपूर्वक करनी है । इसलिए गुरु वंदनार्थ पूर्व की तरह खमासमण देकर, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक मुहपत्ती पडिलेहुं' अर्थात् 'हे भगवंत ! आप अपनी इच्छा से मुझे आज्ञा दें मैं सामायिक लेने के लिए मुहपत्ती का प्रतिलेखन करूँ ? ऐसा कहकर गुरु भगवंत से मुहपत्ती की प्रतिलेखना करने की आज्ञा मांगी जाती है । यह सुनकर गुरु भगवंत भी योग्य अवसर जानकर साधक को आज्ञा देते हैं - 'पडिलेहेह' अर्थात् 'तुम मुहपत्ती का प्रतिलेखन करो । गुरु भगवंत जब ये आज्ञा दें तब साधक को, ‘इच्छं' कहकर उनकी आज्ञा का स्वीकार कर मुहपत्ती का पडिलेहण करना है । जैनशासन में अगर साधक कोई भी कार्य करना चाहता हो, तो उसके लिए इच्छाकार समाचारी का पालन करना अति आवश्यक है । इसीलिए इस प्रकार के शब्दप्रयोग द्वारा गुरु की इच्छा जानकर, विनयपूर्वक आज्ञा पाकर सामायिक करने का इच्छुक साधक द्रव्य और भाव से, हिंसा से बचने के अभिप्रायपूर्वक मुहपत्ती के ५० बोल की विचारणापूर्वक मुहपत्ती का पडिलेहण करता है ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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