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सामायिक लेने की विधि
सामायिक की प्रतिज्ञा करने से पहले मुहपत्ती की पडिलेहना इसलिए जरूरी है कि पडिलेहना की क्रिया अहिंसक भाव को उत्पन्न करनेवाली है । बाहर से मुहपत्ति को देखकर उसमें कोई जीव-जंतु हो तो उसको दूर करने से बाह्य यतना का पालन होता है और बोल के विचार द्वारा आत्मा को पीड़ा देनेवाले रागादि भावों की अनुप्रेक्षा कर उनसे बचने रुप अभ्यंतर यतना का पालन होता है । यहाँ मुहपत्ती के उपलक्षण से सामायिक के तमाम उपकरण, सामायिक करने का स्थान आदि सर्व को शास्त्र में बताई हुई विधि के अनुसार प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना पूर्वक ही उपयोग में लेने चाहिए । इस प्रकार उपकरण के उपयोग से छ- काय जीवों की रक्षा का परिणाम उत्पन्न होता है । यह परिणाम समताभाव का पूरक एवं पोषक परिणाम है ।
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४. इसके बाद एक खमासमण देकर कहना कि 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहु ? उसके बाद इच्छं० कहकर एक खमासमण देकर खड़े होकर कहना कि, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक ठाउं ?' और इच्छं कहकर दो हाथ जोड़कर एक नवकार गिनना ।
मुहपत्ती - पडिलेहन की क्रिया पूर्ण होने के बाद सामायिक करने की आज्ञा माँगने के लिए, साधक गुरु भगवंत को एक खमासमण देकर कहता हैं कि, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहु ? अर्थात् सामायिक करने
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मेरी भावना है । मैं इस प्रयोजन के लिए आपसे आज्ञा चाहता हूँ ? तब गुरु कहें, 'संदिसह' - तुम अपनी इच्छा के अनुरूप आज्ञा माँगो । गुरु की आज्ञा को स्वीकार कर साधक कहता है, 'इच्छं' अर्थात् आप की आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।
फिर, एक खमासमण देकर साधक कहता है, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन ! सामायिक ठाउं ?' अर्थात् हे भगवंत ! आप मुझे इच्छापूर्वक आज्ञा दें, मैं सामायिक में रहूँ ? तब गुरु कहें, 'ठाएह' तुम सामायिक में रहो । इसके बाद साधक खड़ा होकर 'इच्छं' कहते हुए आज्ञा स्वीकार करके दो हाथ जोड़करमस्तक झुकाकर, मंगल करने के लिए एक नवकार गिनता है।