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सामाइयवय जुत्तो सूत्र . २५७ कारण या शारीरिक अशक्ति के कारण, स्वाध्यायादि में मम को स्थिर करने के लिए कोई आधार आदि लेकर बैठने पर आलंबन दोष नहीं लगता ।
६. आकुंचन - प्रसारण : विशेष कारण के बिना सामायिक में हाथ पैर को संकोचने या फैलाने से यह दोष लगता है । इस तरीके से हाथ-पैर आदि को लंबा करने या सिकोड़ने से मन की स्थिरता तथा यत्न की दृढ़ता नहीं होती । फलतः सामायिक का भाव नहीं आता । अतः इस दोष से बचना चाहिए ।
७. आलस्य : सामायिक में आलस्य करना 'आलस्य' दोष है । आलस्य शरीर की जड़ता से होता है । शरीर की जड़ता विभिन्न क्रियाओं में आनंद, उत्साह या चित्त की प्रसन्नता के अभाव के कारण उत्पन्न होती है । सामायिक करनेवाला साधक यदि शास्त्र का ज्ञाता हो एवं विधिवत् सामायिक में यत्न करता हो, तो उसकी यह क्रिया उसके आनंद-उत्साह में वर्धन जरूर करती है और तब इस दोष का अवकाश नहीं रहता । परन्तु सत्त्व, क्षयोपशम तथा समझ के अभाव के कारण से की हुई सामायिक में आनंद-उत्साह आदि गुण प्रकट नहीं होते । शरीर में जड़ता आने से यह दोष प्रकट होता है ।
८. मोटन (चटकाना) : प्रमादादि दोष के कारण हाथ-पैर की अंगुलियों को चटकाना, शरीर मोड़ना वगैरह मोटन दोषरूप है ।
९. मल : सामायिक लेकर समभाव के प्रति यत्न करने के बदले शरीर पर से मैल उतारना 'मल' दोष है । यह दोष, मल के प्रति जुगुप्सा के कारण होता है । मल के प्रति घृणा समभाव में बाधक है । इसलिए इस दोष का त्याग करना भी जरूरी है ।।
१०. विमासण : विमासण की मुद्रा में बैठना 'विमासण' दोष है । ऊपरी तौर से यह गहरी चिंता करने जैसा मानसिक दोष है, ऐसा लगता है । परन्तु विमासण काल में जिस मुद्रा में बैठे हो, उस तरीके की मुद्रा में बैठने के कारण यह दोष काया का दोष माना जाता है ।