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________________ सामाइयवय जुत्तो सूत्र २४९ एवं भविष्य में सुयोग्य करने की अभिलाषावाली आत्माएँ ये पद बोलें तो वह शब्दोच्चारण ऊपरी तौर से मृषारूप लगे, तो भी विधिपूर्वक करने की इच्छावाली आत्माओं को उससे सानुबंध- दोष नहीं लगता । उनका यह दोष निरनुबंध (नाश पानेवाला) है । इस तरीके से प्रारंभिक कक्षा में ग्रहण की हुई सामायिक भी लाभप्रद बनती है । जिनको वास्तविक सामायिक की समझ भी नहीं है, पारमार्थिक विधि की जानकारी नहीं है एवं जानने की इच्छा भी नहीं है, मात्र सामायिक करने को अच्छा मानते हैं । ऐसे सामान्य भाव से निर्विचारक की तरह सामायिक करनेवाले को सामायिक से कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता। उनकी सामायिक की क्रिया अननुष्ठान रूप बनती है । इसीलिए सामायिक के उत्तम फल को प्राप्त करने की इच्छावाले साधक को सामायिक का स्वरूप एवं सामायिक की विधि सुयोग्य गुरु से जान लेनी चाहिए एवं उसके अनुरूप व्यवहार (कार्य) करना चाहिए, जिससे विशेष फल की प्राप्ति हो सके । अविधि का ‘मिच्छा मि दुक्कडं' देने के बाद, अब मन-वचन-काया से कितने दोष लगते हैं यह बताते हैं - दश मन ना, दश वचन ना, बारह कायाना आ बत्रीस दोषों मां जे कोई दोष लाग्यो होय ते सविहु मन-वचन-काया थी मिच्छा मि दुक्कडं । 2. सानुबंध - जो बंध दोष की परंपरा को चलाता है, उसे सानुबंध कहते है । 3. भिन्न भिन्न प्रकार के परिणामों की अपेक्षा से शास्त्रों में अनुष्ठान के (धर्मक्रिया के) पाँच प्रकार बताये हैं । १. इस लोक के सुख की इच्छा से किया अनुष्ठान, विषानुष्ठान है । २. परलोक के सुख की इच्छा से किया अनुष्ठान, गरानुष्ठान है । ३. समुर्छिम की तरह सोंचे समझे बिना किया हुआ अनुष्ठान, अननुष्ठान है । ४. सुंदर अनुष्ठान का कारण बने ऐसी क्रिया को तद्हेतु अनुष्ठान कहते हैं । ५. मोक्ष का शीघ्र कारण बने, वैसे अनुष्ठान को अमृत अनुष्ठान कहते हैं ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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