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सूत्र संवेदना
में बताई गई विधि से सामायिक पारने को विधिपूर्वक सामायिक पारा कहा जाता हैं ।
सामायिक पारने के समय भी साधक इन पदों द्वारा पुनः याद करता है कि, "मैंने सामायिक विधि से ग्रहण की है या नहीं ?, विधि से पारी है या नहीं ?” प्रारंभ से अंत तक विधिपूर्वक करने की भावना थी, इस लिए मेरा यत्न भी था । ऐसा होने के बावजूद भी विधि करते हुए कोई भी अविधि हुई हो, तो उन पापों का मैं मन, वचन, काया से मिच्छा मि दुक्कडं' देता हूँ अर्थात् विधि से करने का भाव होने पर भी अज्ञानता से, अविवेक से या प्रमाद आदि दोषों के कारण मुझ से कोई भी अविधि हुई हो, तो वे अविधिकृत मेरे पाप नाश हो जाएँ ।”
सामायिक विधि से लिया इत्यादि पदों का उच्चारण करने का सच्चा अधिकारी वही व्यक्ति है, जिसे शास्त्र विधि का ज्ञान हो एवं उसी प्रकार से विधि अनुसार सामायिक करने का जिसने प्रयत्न किया हो तथा सामायिक विधि अनुसार पूर्ण की हो; परन्तु जिसने मात्र सूत्रोच्चारण कर कायिक क्रिया ही की हो, सामायिक के पारमार्थिक स्वरूप को या विधि को जाना भी नहीं हो याने कि जिसने वास्तविक रीति से सामायिक का यत्न नहीं किया हो, उसके लिए इन पदों का उच्चारण मृषावाद तुल्य बन जाता है ।
जो सामायिक के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है, विधि का ज्ञाता है एवं जिसे विधिपूर्वक सामायिक करने की इच्छा है फिर भी अनादि अभ्यस्त प्रमाद के कारण यत्न नहीं कर सकता तथा 'सामायिक विधि से लिया, विधि से पारा', बोलते हुए उसके मन में बहुत दु:ख होता है कि, वास्तव में “मैं इन वचनों को बोलने का अधिकारी ही नहीं हूँ क्योंकि मैंने प्रमाद के कारण विधिमार्ग का पालन नहीं किया, मैंने सामायिक विधिपूर्वक लेकर, सामायिक में रहते हुए समभाव में रहकर, यत्नपूर्वक सामायिक पूर्ण करनी चाहिए वैसा भी नहीं किया, तो मैं विधि किए बिना यह पद कैसे बोल सकता हूँ ?” इस प्रकार के अपने प्रमाद के प्रति तिरस्कार भाववाली