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सामाइयवय जुत्तो सूत्र
सामायिक पारने के बाद भी सामायिक भाव में उसकी रुचि बनी ही रहती है । इसीलिए जब जब संयोग एवं सत्त्व हो, तब तब वढ्ढ अवश्य सामायिक में पुनः जुड़ जाता है । सामायिक की ऐसी रुचि होने के कारण जब वह संसार की अन्य क्रिया करता है, तब भी उसमें उसे तीव्र रुचि नहीं होती । तीव्र रस या रुचि के बिना संसार की क्रिया करते रहने के कारण संसार की क्रियाएँ भी उसके लिए, वैसे सानुबंध पापकर्म का कारण नहीं बनती जिसका प्रवाह हमेशा चालू रहता है एवं पुनः पुनः की हुई सामायिक क्रिया उसे तात्त्विक मुनिभाव के नज़दीक ले जाने का कारण बनती है ।
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक यह सोचता है कि,
“यदि मुझे अपना कल्याण करना है, तो सर्वप्रथम मुझे सावद्य भाव का त्याग करना पड़ेगा, क्योंकि सावद्य भाव ही जीव को तीनों काल में दुःख देता है । इसलिए सत्त्व एवं सामर्थ्य हो तो सर्वविरति भाव को स्वीकार कर मुझे पाँच समिति, तीन गुप्ति, क्षमादि दश यतिधर्मों का निरंतर पालन करना चाहिए। उससे ही मेरे कर्म समाप्त होंगे एवं मेरी आत्मा का हित होगा । यदि ऐसा सामर्थ्य न हो तो भी ऐसे सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिए पुनः-पुनः दो घड़ी की भी शुद्ध (बिना दोष की ) सामायिक करने के लिए मुझे सतत यत्न करना चाहिए ।"
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सामायिक विधिए लीधुं, विधिए पार्क विधि करता जे अविधि हुई होय तेनुं 'मिच्छामि दुक्कडं' ।
शास्त्र में जिस प्रकार से मन-वचन काया की शुद्धि बनाए रखने को कहा गया है, उस प्रकार से शुद्धि रखकर, शुद्ध वस्त्रों को पहनकर, शास्त्रानुसारी मुहपत्ति, चरवला वगैरह उपकरण लेकर, योग्य समय, योग्य स्थान पर सामायिक के सूत्रों एवं अर्थ का योग्य विचार कर सामायिक की जो प्रतिज्ञा ली जाती है वह विधि पूर्वक ली गई सामायिक कहलाती है एवं ग्रहण की हुई उस प्रतिज्ञा को योग्य तरीके से पालन करते हुए, शास्त्र