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________________ २४० सूत्र संवेदना मोक्ष का अभिलाषी साधु हो या श्रावक, उसकी एक ही भावना होती है कि, कब कर्म का नाश हो एवं मैं कुछ शुद्ध होकर आत्मा की साधना कर सकूँ । कर्मनाश का सर्वश्रेष्ठ उपाय सर्वविरति है, परन्तु सर्वविरति को ग्रहण करने का सामर्थ्य जिस श्रावक में नहीं है, वैसे श्रावक को जब ऐसा सुनने को मिले कि, इस सामायिक की क्रिया ऐसी है कि, जिसमें श्रावक लगभग साधु जैसा हो जाता है एवं श्रावक भी सामायिक काल में बहुत से अशुभ कर्मों का क्षय कर सकता है तब उसे पुनः पुनः सामायिक करने की इच्छा होती है । इसीलिए सामायिक पारते हुए ज्ञानी पुरुषों ने इस सूत्र को बोलने का विधान किया है । इस सूत्र के अंत में सामायिक काल में लगे बत्तीस दोषों को याद करके उनका भी मिच्छा मि दुक्कडं दिया है । मूल सूत्र: सामाइय-वयजुत्तो, जाव मणे होइ नियम-संजुत्तो, छिन्नइ असुहं कम्मं, सामाइय जत्तियावारा ।।१।। सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा, एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ।।२।। सामायिक विधिए लीधुं, विधिए पाएँ, विधि करतां जे कांई अविधि हुओ होय, ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं । दश मनना, दश वचनना, बार कायाना बत्रीस दोषोमांथी जे कोई दोष लाग्यो,होय, ते सविहु मन, वचन, कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं । पद संपदा अक्षर-७४
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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