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________________ २३८ सूत्र संवेदना संस्कार बहुत मंद हो जाते हैं । तदुपरांत सत्त्व का प्रकर्ष होता है, पाप के संस्कार अत्यंत कमजोर होते हैं एवं पाप से वापस लौटने का एक नया मार्ग मिलता है । अप्पाणं वोसिरामि : भूतकाल में पाप करनेवाली अपनी आत्मा का त्याग करता हूँ । भूतकाल में जिसने पाप किया है, उस अत्यंत निंदनीय मेरी आत्मा के पर्याय का मैं त्याग करता हूँ । दूसरी तरह से अर्थ करते हुए अप्पाणं = अत्ताणं =जिसे किसी का शरण नहीं, कोई जिसका रक्षक नहीं है, ऐसे इस संसार में पड़ी हुई आत्मा का मैं विसर्जन करता हूँ अर्थात् वोसिराता हूँ। अत्यन्त त्याग करता हूँ । अनादिकाल से सतत जो पाप होते रहे हैं एवं उनके कारण आत्मा के ऊपर जो पाप के सघन संस्कार पड़े हैं, उन पापों का विविध प्रकार से मैं त्याग करता हूँ अर्थात् सामायिक के दौरान उन पापों का होना संभव ही न रहे, उस तरीके से मैं त्याग करता हूँ । ऐसा बोलने से 'भूतकाल की सावध भावयुक्त आत्मा के साथ अब मेरा संबंध नहीं' ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है जिससे पाप करने की वृत्ति नष्ट हो जाती है । इस सूत्र का उच्चारण करते हुए सोचना चाहिए कि, “इस संसार में मैं निरंतर पाप-सावद्य व्यवहार करता रहता हूँ। फलतः मैं कर्म के कद् विपाक भी सहन करता हूँ। हे भगवंत ! आज आप की कृपा से मुझे पाप से अटकने की भावना हुई है। इसीलिए मैंने कुछ देर के लिए मन-वचन-काया से पाप नहीं करने की प्रतिज्ञा की है। प्रभु ! मैं इस प्रतिज्ञा का अच्छी तरह पालन कर सकूँ, मेरे हृदय में से ममता आदि दोषों का नाश हो ऐसी कृपा करना ।”
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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