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करेमि भंते सूत्र
बोलकर गुरु से पूछकर जिस सामायिक का आरंभ किया था, वही सामायिक हे भगवंत ! मेरे द्वारा समर्पित हुई है । इससे यह निश्चित हुआ कि गुरु से पूछकर आरंभ की गई सभी क्रियाओं के अंत में गुरु को प्रत्यर्पण = निवेदन, अवश्य करना चाहिए अथवा प्रारंभ में सामायिक की प्रतिज्ञा का उच्चारण करने रूप क्रिया करते हुए ‘भंते' कहकर गुरु को आमंत्रित करके क्रिया संबंधी गुरु से अनुज्ञा माँगने के लिए भंते शब्द का उच्चारण किया गया है एवं अब भूतकाल में किए हुए पापों का प्रतिक्रमण, निंदा एवं गर्हा रूप क्रिया के लिए गुरु से अनुज्ञा मांगनी है । इसलिए पुनः भंते शब्द का उच्चारण है ।। निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि : मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं (सावद्य योगवाली मेरी) आत्मा को वोसिराता हूँ ।
निंदामि : मैं निन्दा करता हूँ याने आत्मसाक्षी से मैं पाप का पश्चात्ताप करता हूँ । पाप होने या करने के बाद जब साधक को अपनी भूल महसूस हो, तब वह सोचता है कि,
'भूतकाल में हिंसा, जूठ, चोरी आदि के जो छोटे-बड़े पाप किए हैं, वह मैंने गलत किया है । उससे मैंने अपनी आत्मा का अहित किया है । जान बूझकर मैंने ही अपनी दुर्गति को आमंत्रण दिया है । पापी, अधम, दुष्ट कर्म करनेवाले मुझे धिक्कार है।' हृदय के सच्चे भाव से ऐसा सोचना ‘निन्दा' है ।
'गरिहामि' पाप खटकने के कारण जिस पाप के प्रति तिरस्कार भाव उत्पन्न किया हो, उस पाप को सरलता से गुरु के समीप जाकर कहना गर्दा है । 'हे भगवंत! मैं पापी हूँ । मैंने बहुत से पाप किए हैं, आप मुझे इन पापों से मुक्त होने का रास्ता बताइये ! आप मेरा उद्धार करें !' इस तरह पाप के प्रायश्चित्तपूर्वक गुरु के पास पाप का नम्र भाव से निवेदन करना, गर्दा है ।
इस तरीके से गुरु भगवंत को स्मृति में लाकर अथवा गुरु भगवंत के समक्ष, भूतकाल में किए हुए पापों की निंदा एवं गर्दा करने से पाप के