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सूत्र संवेदना
सावद्य योग के प्रति अत्यंत सावधान बनती है एवं निरवद्य भाव को अधिक प्राप्त करती है । इस तरीके से उत्तरोत्तर निरवद्य भाव को प्राप्त करके आत्मा अंत में वीतराग दशा के श्रेष्ठ सुख को प्राप्त कर सकती है । तस्स भंते ! पडिक्कमामि : हे भगवंत ! उनका = सावद्य व्यापारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।
'भंते' शब्द द्वारा पूर्वोक्त रीति से देव, गुरु और अपनी आत्मा को उपस्थित कर साधक उन्हें कहता है कि, 'हे भगवंत ! मैंने भूतकाल में जो भी पाप प्रवृत्तियाँ की हों, करवाई हों या उनका अनुमोदन किया हो तो उन सबसे मैं अब निवृत्त होता हूँ । उस पापमार्ग को त्याग कर अब मैं वापस लौटता हूँ ।' वैसे तो भूतकाल में मैंने जो पाप किए है, उन पापों से करने या करवाने रूप में तो निवृत्ति संभव नहीं है, तो भी उन पापों के विचार रूप अनुमोदन से मैं निवृत्त होता हूँ । याने उसे मैं त्याग करता हूँ । इसके अतिरिक्त, ये शब्द बोलते हुए श्रावक ऐसा संकल्प करता है कि अब भूतकाल में किए हुए पाप पुनः नहीं करूँगा एवं नहीं करवाऊँगा । ऐसे भूतकाल के पापों के स्मरणपूर्वक उन पापों का प्रतिक्रमण करके निंदा, गर्हा द्वारा उन पापों का त्याग करता हूँ ।
इस प्रकार पाप से वापस लौटने का संकल्प, भूतकाल में आत्मा के ऊपर पडे हुए पाप के संस्कारों को म्लान करता है । यह संकल्प ही पाप 'करने की इच्छा प्रकट करनेवाले मलिन संस्कारों को दूर करने का काम करता है । भूतकालीन पाप के संस्कार का नाश करने का भाव और भविष्य में पाप न हो, ऐसी वृत्ति को प्रकट करना, प्रतिक्रमण है ।
जिज्ञासा : इस सूत्र के प्रारंभ में ही 'भंते' पद का प्रयोग किया गया है, तो पुनः यहाँ भंते पर्द का उच्चारण किसलिए ?
तृप्ति : पूर्व में जो 'भंते' पद था, वह गुरु को आमंत्रण देने के अर्थ में था एवं यहाँ जो ‘भंते” पद है, वह प्रत्यर्पण के लिए है अर्थात् प्रथम 'भंते' पद