________________
करेमि भंते सूत्र
२३५
इस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण करने के बाद साधु एवं श्रावक को बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता है; क्योंकि, सावधान न रहें तो बहुत बार अपने मन, वचन, काया से आरंभ-समारंभ का करण, करावण या अनुमोदन हो जाने की संभावना रहती है एवं इससे प्रतिज्ञा भंग होने की भी शक्यता रहती है ।
जैसे कि रोग से पीड़ित किसी स्वजन को देखकर, सामायिक में रहा हुआ श्रावक या साधु कहें कि, क्यों दवाई नहीं लेते ? अथवा अमुक वैद्य या डॉक्टर अच्छा है । ऐसे वचन सुनकर वह रोगी डॉक्टर के पास जाने का, या औषध लेने का जो आरंभ-समारंभ करता है, उसमें सामायिक में रहे हुए श्रावक या साधु की वाणी कारण बनती है, इसलिए वाणी से सावध करवाने का दोष लगता है । आँख से या हाथ के संकेत से किसी सावध कार्य की सूचना करने से काया से करवाने का दोष लगता है । किसी के सावद्य कार्य संबंधी या अविरतिधर के आगमन संबंधी आँख से आश्चर्य व्यक्त करने पर काया से अनुमोदना का दोष लगता है । यदि सावधानी से न रहे, तो ऐसे अनेक तरह के मन-वचन-काया से अनुमोदन का दोष लगने की संभावना रहती है। यहाँ तो मात्र दो-तीन उदाहरण ही दिये हैं । परन्तु बुद्धिसंपन्न व्यक्ति के लिए इस तरीके से हरेक प्रकार के दोषों का विचार करना जरूरी है।
सामायिक में रहकर समताभाव को प्राप्त करने की जिसकी इच्छा हो, वैसे साधु या श्रावक को संक्लेश बढ़ानेवाले एवं चित्त को मलिन करनेवाले योगों से दूर होकर आत्मा को निरवद्य भाव की ओर ले जाए, वैसे तपसंयम, स्वाध्याय या वैयावच्चादि में अपने मन-वचन-काया को जोड़ देना चाहिए । बार बार समिति-गुप्ति स्वरूप संयम में किया हुआ प्रयास, अनशन आदि तप का पालन एवं सूत्र-अर्थ के परावर्तनादि योग, संसारवर्ती सावद्य योग के संस्कारों को मन्द मन्दतर करते हैं । अशुभ संस्कार मंद होने से आत्मा आंशिक सुख का अनुभव कर सकती है । उसके कारण आत्मा