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सूत्र संवेदना
गुरु भगवंत से जान लेना चाहिए । गुरु भगवंत से अर्थ समझने के बाद उस अर्थ का सतत परिशीलन करके उसे आत्मसात करना चाहिए, तो ही सामायिक की प्रतिज्ञा सम्यग् प्रकार से पाली जा सकती है ।
इस प्रतिज्ञा के विशुद्ध पालन के लिए श्रावकों तथा साधु भगवंतों को अपने मन-वचन-काया के योगों को स्वाध्याय में, जाप में या गुरु वैयावच्च में इस तरीके से जोड़ना चाहिए कि जगत् के भावों से उनका मन मुक्त हो जाए
और सूत्रार्थ की परावर्तना द्वारा पूर्व में जो सावध योग के संस्कार पड़े हों वे भी धीरे धीरे अल्प अल्पतर होते जाए ।
दुनियाभर के पापों के साथ अपना सीधा या परंपरा से संबंध किस तरह है ? उसके कारण अपनी आत्मा किस तरीके से सतत कर्म बंध करती है ? उन उन भावों के परिणमन से अपने में किस तरह से विह्वलता एवं व्यथा उत्पन्न होती है ? इन सभी का विचार करके इस सूत्र द्वारा दुनियाभर के पापों से अटकना है । जिसमें यह ज्ञान नहीं होता, वह आत्मा इस सूत्र को बोलकर सावध प्रवृत्ति से अटकने का प्रयत्न नहीं कर सकती, अर्थात् पाप से विराम भी नहीं पा सकती एवं इस प्रतिज्ञा से उसे आनंद की अनुभूति भी नहीं होती ।
इस सूत्र को बोलकर हम शायद इस भव में तन-मन से पुणिया श्रावक जैसी देश से सामायिक एवं भगवान वीर जैसी सर्वविरति सामायिक नहीं कर सकते, तो भी इस सूत्र के अर्थ को पढ़कर ऐसी विशिष्ट सामायिक की रुचि जगाने का प्रयत्न करेंगे तो जरूर पुण्यानुबंधी पुण्य बांधकर विशिष्ट सामग्री को प्राप्त करके, पुनः सामायिक के संस्कारों को जागृत करके, एक दिन हम भी अपने श्रेय को अवश्य प्राप्त कर सकेंगे । इस अभिलाषा के साथ ईस सूत्र के अर्थ को हमें अपने चिंतन-मनन का विषय बनाना है ।