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लोगस्स सूत्र
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प्रारंभिक दशा में चारित्र संज्वलन कषाय से युक्त होने से कर्म के आस्रवों को उत्पन्न करता है, इसलिए उसे सास्रव चारित्र कहा जाता है । जब चारित्र शुद्ध शुद्धत्तर होता है, तब वह सब प्रकार के कषाय से मुक्त होता है । ऐसा चारित्र किसी प्रकार के कर्म के आस्रव को नहीं होने देता, इसलिए उसे निरास्रव संयम कहा जाता है । निराश्रव संयमी वीतरागता को प्राप्त कर सब कर्मों के नाश द्वारा मोक्ष तक पहुँच जाता है । यह मोक्ष ही भाव आरोग्य है, इसलिए साधक अपने आरोग्य के लिए जिनोक्त धर्मरूप बोधि की याचना करता है ।
जैसे भाव आरोग्य के लिए बोधि अनिवार्य है, वैसे प्राप्त बोधि को टिकाने के लिए समाधि अर्थात् चित्त की स्वस्थता जरूरी है ।
समाधि की विचारणा :
यह समाधि भी दो प्रकार की होती है : द्रव्य समाधि और भाव समाधि । जिससे अल्पकाल के लिए मन को स्वस्थता और काया को सुख का अनुभव हो, वह द्रव्य समाधि कहलाती है । ग्रीष्मकाल की गरमी से तप्त तृषातुर मानव को यदि ठंडा पानी मिले, तो उसकी काया को तत्काल सुख की प्राप्ति होती है और उसके मन को भी शान्ति का अनुभव होता है, यह द्रव्य समाधि है तथा जिससे चिरकाल के लिए आत्मिक सुख, शांति एवं प्रसन्नता की प्राप्ति होती है, उसे भाव समाधि कहते हैं । भाव समाधि माध्यस्थ्य भाव एवं उदासीन वृत्ति से प्रकट होती है । भाव समाधि आत्मा का स्वाभाविक एवं स्वाधीन भाव है । उसकी शुरुआत सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद ज्ञान - दर्शनचारित्र गुणों की आराधना करते करते होती है । उसकी पराकाष्ठा सर्वसंवरभाव के चारित्र की प्राप्ति में है ।
द्रव्य समाधि अल्प काल के लिए तन-मन को स्वस्थ करती है; परन्तु निमित्त मिलने पर या निमित्त के बिना भी चित्त पुनः अस्वस्थ हो जाता है । द्रव्य समाधि में दूसरों की अपेक्षा रहती है, जब कि भाव समाधि पाने के