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सूत्र संवेदना
है । 'आरुग्ग' शब्द से साधक प्रभु से ऐसे भाव-आरोग्य की माँग करता है। अन्य रीति से सोचें तो इच्छा ही रोग है । अनिच्छा आरोग्य है । मैं किस वजह से सुखी हूँ एवं किस वजह से दुःखी हूँ, इसका बोध जिसे होता है वह साधक जानता है कि, इच्छा ही मेरा रोग है - मेरे दुःख का मूल है । सर्वत्र अनिच्छा का भाव ही भाव-आरोग्य है ।
साधक भगवान से आरोग्य की याचना तो करता है, परन्तु यह आरोग्य इस भव में मात्र याचना करने से प्राप्त नहीं होता । उसके लिए सम्यग् प्रयत्न जरूरी है । यह सम्यग् प्रयत्न बोधि से ही प्राप्त होता है, इसलिए इसके बाद बोधि की याचना करते हुए साधक कहता है कि, _ 'हे प्रभु ! इस भव में आरोग्य की प्राप्ति के कारणभूत अर्हत्भाषित धर्म की मुझे प्राप्ति हो ।' अरिहंत परमात्मा ने सम्यग्दर्शन से लेकर वीतरागता तक का धर्म बताया है । इस धर्म का तात्विक प्रारंभ जिन प्रणीत धर्म के प्रति अडिग श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन से होता है । 'तमेव सझं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं' - 'वही सत्य एवं शंकारहित है, जो जिनेश्वर भगवंतने कहा है।' ऐसी श्रद्धा सम्यग्दर्शन् है । सामान्य बोधकाल में यह श्रद्धा सामान्य प्रकार की होती है और बोध की सूक्ष्मता से यही सम्यग्दर्शन विशेष प्रकार से जीव को प्रकट होता है । विशिष्ट सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर परमात्मा के प्रत्येक वचन का स्याद्वाद की दृष्टि से (अनेक दृष्टिकोण से) बोध होता है । सामान्य तौर पर जैनकुल में मिले जन्म को भी बोधिलाभ माना जाता है, पर यहाँ वैसी बोधि अपेक्षित नहीं; यहाँ तो साधक स्याद्वाद के सूक्ष्म बोधपूर्वक मोक्षमार्ग में दृढता से यथाशक्ति प्रयत्न कर सके, ऐसी उत्तम बोधि की प्रार्थना करता है ।
श्रद्धापूर्ण बोध 'जब विशिष्ट बनता है, तब आत्मा बोध के अनुरूप प्रवृत्ति भी कर सकती है और बोध के अनुरूप प्रवृत्ति ही चारित्र रूप धर्म है। ..