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________________ लोगस्स सूत्र २११ सिद्ध का दूसरा अर्थ कृतकृत्य भी होता है । जब तक कूर्म की परवशता है, तब तक कोई न कोई प्रयोजन करना बाकी रहता है । कर्म की पराधीनता से परमात्मा मुक्त होते हैं, इसलिए उन्हें अब कुछ करना बाकी नहीं रहता। इसलिए भी वे सिद्ध हैं । यहाँ जो “ए = एते" पद का प्रयोग किया गया है, वह अभी मेरी बुद्धि में उपस्थित 'ये' के अर्थ में है । सूत्र के प्रारंभ से अब तक के पदोच्चारण द्वारा जिन तीर्थंकरों का कीर्तन, वंदन और पूजन किया गया वे अभी साक्षात्22 मेरे सन्मुख हैं, ऐसी कल्पना करके कहा जाता है कि, जिनकी मैंने पूजादि की है ऐसे 'ये' परमात्मा । अब बुद्धि में प्रत्यक्ष परमात्मा से प्रार्थना की जाती है, आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु : (हे परमात्मा ! मुझे) आरोग्य के लिए बोधिलाभ और श्रेष्ठ तथा उत्तम समाधि प्रदान करें ।। जो लोक में उत्तम हैं और सिद्ध हैं, वैसे कीर्तन, वंदन और पूजन किए हुए इन परमात्माओं के पास याचना करते हुए साधक कहता है, “हे नाथ! आप मुझे आरोग्य = रोग रहितता प्रदान करें" । आरोग्य और बोधि की विचारणा : रोग दो प्रकार के होते हैं : १. द्रव्यरोग, २. भावरोग । वात-पित्त-कफ के विकार से शरीर में उत्पन्न होनेवाले रोगों-को द्रव्य रोग कहते हैं एवं राग-द्वेष आदि कषायों से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली विकृतियों को भावरोग कहते हैं । जीव जब तक कर्मो से युक्त है, कषायाधीन है, विषयों के वश है, तब तक वह भावरोग से मुक्त नहीं हो पाता, परंतु जब जीव समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष में जाता है, तब उसे पूर्ण कक्षा का भाव-आरोग्य प्राप्त होता 22. जे पच्चक्खा एए लोगस्स सुरासुराइरूवस्स । (चे.वं.म.भा., गा-३६०)
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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