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लोगस्स सूत्र
. २०९ ही साधक मोक्षमार्ग में शीघ्र प्रवृत्ति कर सकता है । मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करते हुए मुमुक्षु का चित्त अति आह्लादित होता है । यह आह्लाद ही भगवान की कृपा से प्राप्त हुई चित्त की प्रसन्नता है और यह प्रसन्नता प्राप्त होने पर पुनः वचन पर श्रद्धा में वृद्धि होती है । उससे पुनः कर्म का नाश
और मोक्षमार्ग में प्रगति होती है । इस प्रकार श्रद्धापूर्वक कर्मनाश करते हुए साधक मोक्ष तक पहुँच सकता है ।
वीतराग स्तोत्र में कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने कहा है कि,19 'हे नाथ ! मेरी प्रसन्नता से आपका प्रसाद होता है और आपकी प्रसन्नता से मुझ पर कृपा होती है। इसमें तो अन्योन्याश्रय दोष की प्राप्ति होगी, हे नाथ ! इस दोष का नाश करके आप मुझ पर प्रसन्न हों ।' यह एक भक्ति के अतिशय से हुई भक्त हृदय की प्रार्थना है । इस श्लोक में जिस प्रकार ग्रंथकर्ता ने भगवान् की प्रसन्नता की याचना की है, उसी प्रकार यहाँ भगवान की वाणी मुझ पर प्रसन्न हो, ऐसी याचना की गई है । इस गाथा का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है कि,
“हे प्रभु ! आप के वचन में सब दुःखों के नाश का उपाय है परंतु वे सुखकारी वचन मेरे हृदय में कभी उतरे नहीं होंगे इसलिए मैं अनंतकाल से अनेक तरह की पीडाएँ भुगतकर दुःखी होता हुआ संसार में भटक रहा हूँ। अगर आप के वचनों के अनुसार जीवन जीया होता, तो मेरा यह हाल न होता। प्रभु ! अब मुझे यह बात समझ में आई है । अतः आपसे प्रार्थना करता हूँ कि, अब आपका वचन, आपका योगमार्ग मेरे हृदय में परिणत हो। जिससे भोग मुझे आसक्त न करे, मोह मुझे पीडित न करे और निरंतर आपकी भक्ति करके मैं विशेष प्रकार की चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त कर सकूँ ।”
19. मत्प्रसत्तस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योन्याश्रयं भिन्धि प्रसीद भगवन् ! मयि ।।
- वीतराग स्तोत्र, १०-१