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सूत्र संवेदना
जिज्ञासा : यदि भगवान् देते ही नहीं हैं, तो भक्ति से भी ऐसा बोलने का क्या प्रयोजन है ?
तृप्ति : परमात्मा के पास ऐसी याचना करने से चाहे परमात्मा कुछ नहीं देते, फिर भी विनम्रभाव से की हुई प्रार्थना (याचना) शुभभाव को उत्पन्न करवाकर मोहनीयादि कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम भाव पैदा करवाती है
और उससे भक्त को चित्त की प्रसन्नतारूप प्रसाद की प्राप्ति होती है । जैसे चिंतामणि रत्न जड़ होने से उसमें कोई विशेष भाव होने की संभावना नहीं है, फिर भी विधिपूर्वक उसका सेवन करनेवाले को चिंतामणि सर्व इच्छित देता ही है, उसी प्रकार भले भगवान् वीतराग हैं, फिर भी उनकी श्रद्धायुक्त भक्ति और हार्दिक स्तुति भक्त के मनोरथों को पूर्ण करती है।
'तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसी भक्ति की प्रार्थना का परमार्थ यह है कि, तीर्थंकरों की वाणी मेरे हृदय में परिणत हो, क्योंकि इस संसार को पार करने का साधन परमात्मा के वचन हैं। परमात्मा के वचनों का आलंबन लेकर जीव जब योगमार्ग में प्रवृत्ति करता है, तब ही वह सच्चे सुख की दिशा में आगे बढ़ सकता है । परमात्मा के शासन के परमार्थ को पा सकता है । वैसे तो हमें पीड़ा देनेवाले राग-द्वेषादि-कषाय को निर्मूल करने का कार्य तो वास्तव में अपने ही शुभ अध्यवसाय से होता है, फिर भी इस शुभ अध्यवसाय का प्रबल निमित्त परमात्मा और परमात्मा द्वारा प्ररूपित योगमार्ग ही है । परमात्मा ने राग-द्वेषादि कषायों का संपूर्ण नाश किया है और वचन द्वारा जगत् के जीवों को भी इस रागादि कषायों को दूर करमेरका मार्ग बताया है, इसलिए “ऐसे परमात्मा के वचन मेरे हृदय में परिणत हों” ऐसे प्रसाद की अर्थात् कृपा की परमात्मा से याचना करना योग्य ही है ।
भगवान के वचन हृदय में परिणत होना ही भगवान की कृपा है । भगवान के वचन परिणत होने का अर्थ है भगवान् के वचनों के ऊपर श्रद्धा होना । भगवान के वचनों के ऊपर जैसे-जैसे श्रद्धा होती है, वैसे वैसे मोक्षमार्ग में विघ्नभूत कर्मों का विनाश होता है । इन कर्मों का नाश होते