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लोगस्स सूत्र
चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु : सभी चौबीस जिणवर ऐसे, तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों ।
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प्रभु नाम के कीर्तन द्वारा प्रभु की स्तवना करने के बाद साधक प्रभु को प्रार्थना करता है कि,
' हे तीर्थंकर ! आप मुझ पर प्रसन्न हों । आप की कृपादृष्टि ही मेरी साधना की नींव है । आप जैसे कृपालु की प्रसन्नता के बिना मुझ में आराधना करने का कोई उत्साह नहीं रहता । '
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संसार में हर कोई अपने आदरणीय की प्रसन्नता चाहता है । मोक्षेच्छु साधक के लिए प्रभु परम आदरणीय एवं माननीय तत्त्व होते हैं इसलिए वह इन शब्दों द्वारा ऐसा भाव व्यक्त करता है कि, 'प्रभु ! आप और कुछ नहीं देंगे तो चलेगा पर आप प्रसन्नचित्त होकर मेरे हृदय में रहिएँगा ।'
जिज्ञासा : प्रभु तो वीतराग हैं, अतः वे प्रसन्न या अप्रसन्न होते ही नहीं, तो फिर 'प्रभु आप मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसी प्रार्थना क्यों करें ?
तृप्ति : बात सही है कि, प्रभु तो वीतराग हैं । वीतराग कभी किसी के ऊपर राग या द्वेष नहीं करते और यदि करें तो वीतरागता टिक नहीं सकती, इसलिए यह प्रयोग अप्रसन्न ऐसे परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए नहीं है, परन्तु इस वाक्य द्वारा परमात्मा की स्तुति की गई है । स्तुतिस्वरूप याचना को याचनी भाषा कहा जाता है, जो असत्य - अमृषा 18 भाषा कहलाती है, वह सत्य भी नहीं है और असत्य रूप भी नहीं है जैसे 'आपो आपो ने महाराज अमने शिवसुख आपो वीतरागी होने के कारण वे मोक्ष का सुख देनेवाले नहीं हैं, फिर भी भक्ति से ऐसा बोला जाता है ।
18. चार प्रकार की भाषा होती है । सत्य, असत्य, सत्यमृषा और असत्य - अमृषा । जगत् में जो वस्तु जैसी है, वैसा वास्तविक प्रतिपादन करना, सत्य भाषा है । वास्तविकता का निषेध करे, वह असत्य भाषा है । कुछ सत्य और कुछ असत्य भाषा को सत्यमृषा कहते हैं और यह देवदत्त है वगैरह सत्य भी नहीं और असत्य भी नहीं, ऐसी भाषा को असत्य - अमृषा भाषा कहते हैं ।