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________________ २०६ सूत्र संवेदना दूसरे प्रकार से देखें तो कर्मबंध चार प्रकार से होता है स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित17 । इनमें पहले तीन प्रकार का कर्मबंध रजरूप है और निकाचित कर्मबंध मलरूप है । इसके अलावा, कहीं-कहीं असांपरायिक कर्म को रज कहा गया है और सांपरायिक कर्म को मल कहा गया है । संपराय अर्थात् कषाय और कषाय के कारण जिस कर्म का बंध होता है, वह सांपरायिक कर्म मलस्वरूप है। ऐसा कर्मबंध दस गुणस्थानक तक होता है । कषाय के अभाव में मात्र मनवचन-काया के योग के प्रवर्तन के कारण जो कर्मबंध होता है, वह कर्मबंध असांपरायिक कर्मबंध कहलाता है जो रजरूप है । परमात्मा ऐसे दोनों प्रकार के कर्मों से मुक्त है । वैसे तो परमात्मा में भी तेरहवें गुणस्थानक में रजरूप कर्म होते हैं, परन्तु वे अल्प समय में और आसानी से ही नाश होनेवाले होते हैं, इसलिए परमात्मा को कर्म से भी रहित बताया गया है । पहीण जरमरणा : जिन्होंने वृद्धावस्था और मरण का सर्वथा नाश किया है, ऐसे (तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों । ) वैसे तो समस्त संसारी जीव, कभी न कभी तो वयहानिरूप वृद्धावस्था और आयुष्य क्षयरूप मृत्यु का नाश करते हैं, लेकिन नया जन्म लेते ही उन्हें ये दो पुनः प्राप्त होते हैं । जब कि भगवान के जरा और मरण के कारणभू 'कर्मों का क्षय होने के कारण उन्हें पुनः पुनः यह अवस्था प्राप्त नहीं करनी पडती । इसलिए कहा है कि, 'परमात्मा ने जरा और मरण का अत्यंत नाश किया है अर्थात् पुनः प्राप्त न हो इस प्रकार नाश किया है' । } 17. स्पृष्ट कर्म अर्थात् मात्र स्पर्श करके रहा हुआ कर्म, बद्ध कर्म अर्थात् सामान्य से बंधे हुए कर्म, निद्धत्त कर्म अर्थात् गाढ प्रकार से जुड़ा हुआ कर्म और निकाचित कर्म अर्थात् तादात्म्य भाव को प्राप्त किए हुए कर्म ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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