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लोगस्स सूत्र
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एवं मए अभिथुआ : इस प्रकार जिनकी मैंने स्तुति की है वे (तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों ।)
इस एक वाक्य में ध्याता, ध्येय और ध्यान - इन तीनों का समावेश होता है। ‘एवं' से ध्यान का प्रकार बताया गया है । एवं = इस तरह याने कि, प्रत्येक परमात्मा के नाम से संबंधित उनके गुणों को हृदयंगम करके जिस तरह पूर्वोक्त तीन गाथा में मैंने तीर्थंकरो की स्तुति की है उस तरह । 'मए' = 'मुझ से' - इस शब्द से ध्याता कौन हैं ?, वह बताया और ‘अभिथुआ15 से ध्येयभूत अनंत अरिहंतों को बताया है। जब ध्याता अरिहंत के नामोल्लेखपूर्वक ध्यान में स्थिर होता है, तब ध्येय निकट न होने पर भी निकट ही प्रतीत होता है । प्रतिमाशतकादि ग्रंथों में तो कहा गया है कि परमात्मा का नाम हृदय में स्थिर होते ही ऐसी प्रतीति होती है मानो साक्षात् परमात्मा ही सामने दिखाई दे रहे हों, मानो परमात्मा हृदय में प्रवेश कर रहे हों, वे मधुर आलाप कर रहे हों, परमात्मा का सब अंगों में अनुभव हो रहा हो, परमात्मा से तन्मय भाव की प्राप्ति हो रही हों । इस प्रकार के अनुभवों से सर्व कल्याण की सिद्धि होती है । विहुयरयमला : रज और मल स्वरूप कर्म को जिन्होंने दूर किया है, ऐसे (तीर्थंकर भगवंत मुझ पर प्रसन्न हों)
कर्म के अनेक प्रकार हैं, फिर भी अपेक्षा भेद से उसके दो प्रकार होते हैं। रजरूप कर्म और मलस्वरूप कर्म । बंधे हुए जो कर्म आसानी से आत्मा से छूट सकें अथवा वर्तमान में जिन कर्मो का बंध हो रहा हों, उन्हें रजरूप कर्म कहते हैं ।
15. अभिथुआ = अभिमुख्येन स्तुयेत - समन्तात् - स्तुताः 16. शास्त्र इव नामादित्रये हृदयस्थिते सति भगवान् पुर इव परिस्फुरति हृदयमितानुप्रविशति,
मधुरालापगिवानुवदति, सर्वाङ्गीणमिवाऽनुभवति तन्मयीभावमिवापट्टति । तेन च सर्वकल्याणसिद्धिः ।
- प्रतिमाशतक