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है। तो भी भावात्मक रूप से सूत्र के अर्थ को अगर लिखा जाए तो आज कल के बालजीवों के विशेष उपकार का कारण बन सके वैसे उद्देश्य से ही शब्दार्थ मात्र पर लक्ष्य न रखते हुए वे वे शब्द, पद या सूत्र बोलते समय हृदय में कैसे भाव होने चाहिए, उस बात पर महत्त्व देकर इस पुस्तक का लेखन शुरु किया
और उस बात पर पुस्तक में बहुत बल भी दिया गया। इसके अतिरिक्त आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रंथों में एक-एक शब्द के अनेक अर्थ, नय, निक्षेपादि किए हैं, तो भी आज के जीव सामान्य से जितने भावों का स्फूरण कर सकें उतने ही मुख्य अर्थ यहाँ लिए गए हैं।
यह किसी साहित्यकार की कृति नहीं या किसी विद्वान द्वारा बनाई हुई पुस्तक नहीं। इस पुस्तक में लिखे गए भाव तो शास्त्र के आधार से सद्अनुष्ठान करने के लिए यत्न करते हुए एक साधक का शास्त्र सम्मत भाव ही है। इन भावों का स्रोत सामान्य जन के लिए भी उपकारी बन सके उस आशय से ही उसे पुस्तक का रूप दिया गया है।
अर्थ का निर्णय करने के लिए बहुत से संस्कृत, प्राकृत, ग्रंथों एवं गुजराती विवेचनों को ध्यान में लिया है तथा सुश्रावक श्री प्रवीणभाई मोता की सहायता भी ली है। बहुत सी जगह जहाँ सीधे शास्त्र वचन उपलब्ध नहीं हुए वहाँ स्व-क्षयोपशम के अनुसार भी अर्थ किया है। ऐसे स्थानों पर 'मुझे ऐसा लगता है' ऐसा उल्लेख किया है। ___'सूत्र संवेदना' को पढ़ते हुए सामान्य अर्थ तो प्राप्त होगा ही; परन्तु बहुत सी जगह विशेष विचारणीय अनेक दिशाएँ खुलेंगी। इसके अलावा, अनुप्रेक्षा करते करते अनेक शंकाओं का समाधान होगा। इसके अतिरिक्त अनेक नई जिज्ञासाएँ भी प्रकट होंगी। कहीं-कहीं थोड़ी गहनता भी देखने को मिलेगी। परन्तु विशेष अभ्यासी के लिए तो वो दिशा सूचक मात्र ही रहेगी।
इस पुस्तक में मुख्यतया ये बताया गया है कि कौन-कौन से सूत्र बोलते समय किन-किन भावनाओं से हृदय को भावित करना चाहिए, क्योंकि इस लेखनी का मुख्य उद्देश्य यही है कि, सूत्रार्थ पढ़ने द्वारा योग्य आत्माएँ उन