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________________ उन सूत्रों के भावों को हृदय में स्थिर करके, उन-उन भावों से आत्मा को भावित करके, भावपूर्वक क्रिया कर सके। इसलिए प्रत्येक सूत्र या पद को बोलते समय कैसा भाव उल्लसित करना चाहिए वह खास बताया है। शब्द और भाषा की मर्यादा होने से हृदय के बहुत से भाव लेखनी में प्रेषित नहीं हो सके, तो भी यथाशक्ति प्रयत्न किया है। ___ इसमें प्रकट हुए सूत्र के सभी भावों में शास्त्र का आधार निश्चय ही रखा गया है। यथाशक्ति सर्वयत्न के बावजूद अज्ञान, प्रमाद या अभिव्यक्ति की मर्यादा के कारण इसमें परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध एवं सूत्रकार एवं अर्थकार महर्षियों के आशय विरुद्ध जो कुछ लिखा हो, उसके लिए मैं मिथ्या दुष्कृत चाहती हूँ एवं गुणग्राही बहुश्रुतों से अंतर से प्रार्थना करती हूँ कि वे मेरी क्षति को बताएँ जिससे पुनः उसमें सुधार हो सके। ___ मैं जानती हूँ कि क्षयोपशम भाव के कारण संपूर्ण क्षतिमुक्त एवं सर्वस्पर्शी कथन नहीं हो सका है तो भी देवगुरु की कृपा से स्व-परिणति की निर्मलता के लिए किया गया ये प्रयास सभी के आत्मलाभ का कारण बने, यही अंतरेच्छा । लि. सा. प्रशमिताश्री मगसर सुद ११, वि.सं. २०५७ हस्तगिरि महातीर्थ _ वि.सं. २०५७ की साल में सु. सरलाबहेन के आग्रह से यह लेखन कार्य शुरु किया था। आज देव-गुरु की कृपा से सूत्र संवेदना का वाचक वर्ग काफी विस्तृत हुआ है। गुर्जर भाषा की छठ्ठी आवृत्ति प्रकाशित हो रही है। ___ इस हिन्दी आवृत्ति की नींव है - सुविनित ज्ञानानंदी सरलभाषी स्व.सा. विनीतप्रज्ञाश्रीजी, जो खरतरगच्छिया विदुषी सा. हेमप्रभाश्रीजी म. की शिष्या है । उन्होंने वि.सं. २०६३ की साल में मुझे आत्मीयता से निवेदन किया था कि सूत्र संवेदना साधना का एक आवश्यक अंग है। अतः वह सिर्फ
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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