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अनादिकाल से भटकते हुए मेरे जैसे दरिद्र जीव को महानिधान तुल्य इस अनुष्ठान को करने का यह अभूतपूर्व सद्भाग्य वर्तमान काल में मिलने पर सच में मैं कृतार्थ बना हूँ। इस प्रकार की प्रशंसा से प्रमोद का परिणाम पैदा होता है।
4. चौथा लक्षण है - 'विधि भंग से भव का भय' - जिसके प्रति प्रीति या भक्ति का परिणाम पैदा होता है, उसके वचन का विधिपूर्वक पालन करने की इच्छा हो वह तो सहज है एवं अविधि से करने से ये वस्तु नहीं मिलेगी ऐसी सच्ची समझ होने के कारण अविधि का भय भी सतत रहता है, उसी प्रकार यहाँ भी कभी प्रमादादि के कारण विधिमार्ग का उल्लंघन हो, तब 'अरे रे ! इससे तो मेरा संसार घटने के बदले बढ़ सकता है । यह उत्तम क्रिया मुझे दुबारा नहीं मिलेगी तो बादमें भव अटवी में से बाहर निकलने के लिए फिर कभी मौका नहीं मिलेगा ।' ऐसा भय रहता है। ऐसे भय के कारण भी साधक अति सावधानीपूर्वक क्रिया काल में सूत्रों का विचार करता है । ऐसी जागृति होनी ही तदर्थालोचन का फल है ।
सूत्रों के माध्यम से की जानेवाली अपनी क्रिया भावक्रिया स्वरूप बननी चाहिए। जब तक यह क्रिया भाव क्रिया न बने तब तक प्रधान कोटि की द्रव्य क्रिया तो बननी ही चाहिए । इस क्रिया को प्रधान कोटी की द्रव्य क्रिया बनाने के लिए कई वस्तुओं का ज्ञान जरुरी है, जिस में सूत्रार्थ का ज्ञान अत्यंत जरूरी है। सूत्रों का अर्थ सामान्य से समझने के बाद उसके ऊपर गहन चिंतन किया जाए, एक-एक शब्द के उपर अनुप्रेक्षा की जाए एवं चिंतन, मनन एवं ध्यान द्वारा उन सूत्रों से आत्मा को जब भावित बनाई जाए तब ही की हुई क्रिया भावक्रिया बन सकती है।
सभी क्रियाओं को भावपूर्ण बनाने के लिए ही यह सूत्रार्थ लिखने का प्रयास किया गया है। यद्यपि पूर्वधर पुरुषों ने आवश्यक सूत्रों के उपर पंचांगी की रचना की है और आज तक पंच प्रतिक्रमण के सूत्रों के उपर अनेक गीतार्थ गुरु भगवंतों ने और विद्वान श्रावकों ने अपअपने क्षयोपशम अनुसार प्रकाश डाला