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________________ १८६ . सूत्र संवेदना होता है । दृढ़ प्रयत्न से कार्योत्सर्ग करनेवाले साधक ऋषभादि तीर्थंकरों के साथ तादात्म्य भाव को सिद्ध कर सकते हैं अर्थात् एकाग्रता-पूर्वक ऋषभादि जिनेश्वरों का नाम स्मरण करते-करते उन जिनेश्वरों संबंधी मानसिक उपयोगवाले बन सकते हैं । अरिहंत के साथ बने हुए ऐसे तादात्म्य भाव को शास्त्रीय परिभाषा में 'समापत्ति' कहते हैं । यह 'समापत्ति' सभी इष्ट को सिद्ध करने में समर्थ होती है । शास्त्र में समापत्ति, आपत्ति और संपत्ति का एक सुंदर क्रम दिखाया है। जिस ध्यान द्वारा साधक वीतराग के साथ तादात्म्य प्राप्त कर सके अर्थात् आत्मा वीतराग भाव का अनुभव कर सके उस ध्यान को 'समापत्ति' कहते है। समापत्ति से विशिष्ट कर्मनिर्जरा होती है और तीर्थंकरनामकर्म जैसे उत्कृष्ट पुण्य का बंध होता है, जिसे 'आपत्ति' = प्राप्ति कहते हैं। उसके पश्चात्, जब तीर्थंकरनामकर्म का उदय चालू होता है तब अष्ट महाप्रातिहार्यरूप जगत् की सर्वश्रेष्ठ संपत्ति प्राप्त होती है, जिसे 'संपत्ति' कहते हैं। इस तरह प्रभुध्यान साधक को प्रभु ही बना देता है तो दूसरी संपत्तिओं का तो क्या कहना ? कार्योत्सर्ग में जैसे मुख्यतया लोगस्स का चिंतन किया जाता है, वैसे कायोत्सर्ग पारने के बाद जिस प्रणिधानपूर्वक या जिस आशय से कायोत्सर्ग शुरु किया था, उसी आशय की सिद्धि का आनंद भी प्रकटरूप से यही सूत्र बोलकर प्रदर्शित किया जाता है । जैसे भोगी पुरुषों के लिए आनंद व्यक्त करने का साधन भोग के साधन या भोगी व्यक्ति हैं, वैसे मोक्षमार्ग के पथिकों के लिए आनंद व्यक्त करने का साधन, योगी पुरूष अथवा योग के साधन हैं । इस जगत् में गुणवैभव से युक्त व्यक्तित्व, औचित्यपूर्ण जीवन व्यवहार और परोपकार की पराकाष्ठा, तीर्थंकर के सिवाय किसी में भी दृष्टिगोचर नहीं होती, इसीलिए योगी पुरुष आनंद के समय विशेष प्रकार से अरिहंतों को याद करते हैं । इस प्रकार साधक भी कायोत्सर्ग से अपने कर्मों का नाश हुआ है और उससे खुद को गुण की प्राप्ति हुई है उसका आनंद व्यक्त करने के लिए
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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