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लोगस्स सूत्र
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अरिहंत के गुण और उनके किए हुए उपकारों की स्मृति ताजी होती है और उससे अपना चित्त अरिहंत परमात्मा के प्रति अहोभाव से भर जाता है। इस अहोभाव से अरिहंत का नाम स्मरण करने के लिए दूसरी, तीसरी और चौथी गाथा में भरत क्षेत्र में हो चुके इस अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थंकरों की नामपूर्वक स्तवना की गई है और अंतिम तीन गाथाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार से स्तुति करने के साथ साधना करने के लिए अत्यंत उपयोगी आरोग्य, बोधि और समाधि की याचना की गई है और अंत में साधना द्वारा जो प्राप्त करना है, ऐसी सिद्धि की याचना की गई है।
नवकार की तरह लोगस्स सूत्र भी एक मंत्र स्वरूप है । इसीलिए लोगस्स सूत्र के जाप द्वारा बहुत से उपसर्गों - विघ्नों का नाश हो सकता है । उसका रटन, स्मरण और ध्यान विशेष फलदायी है ।
सामायिक, प्रतिक्रमण, देववंदन आदि में लोगस्स सूत्र का उपयोग बारबार होता है, परन्तु विशेषतः इस सूत्र का उपयोग कायोत्सर्ग में होता है। विघ्नों के निवारण के लिए, कर्मक्षय के लिए, ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिए, अरिहंतादि पदों की विशेष आराधना के लिए एवं अनेकविध हेतुओं से इस सूत्र द्वारा कायोत्सर्ग किया जाता है । जिस की ईच्छा हो, उस की प्राप्ति के लिए प्रणिधान पूर्वक, एक संकल्प किया जाता है; जैसे कि इस कार्योत्सर्ग से मेरे कर्मों का क्षय हो, विघ्न शांत हो, मुझे गुणों की प्राप्ति हो इत्यादि ।
साधक जब ऐसे प्रणिधानपूर्वक कायोत्सर्ग में लोगस्स सूत्र बोलता है, तब लोगस्स के एक-एक शब्द के ऊपर विशेष उपयोगवाला बनता है । चौबीस तीर्थंकरों के नाम अर्थ से वीतराग किस प्रकार बना जाता है, वह बतातें हैं। जिससे विशिष्ट नाम से पहचाने जाते अरिहंतादि पर ध्यान ज्यादा केंद्रित
कहा जाता है, जिन की पूर्व या पश्चात् की अवस्था को द्रव्यजिन कहा जाता है और केवलज्ञान प्राप्त कर, समवसरण में बैठकर देशना देनेवाले सर्वगुणसंपन्न तीर्थंकर को भावजिन कहा जाता है।