________________
१८२
सूत्र संवेदना
यहाँ मन-वचन-काया के योग का सर्वथा त्याग नहीं करना है; परन्तु अशुभ स्थान में प्रवृत्त इन तीनों योगों को रोककर शुभ स्थान में यत्नपूर्वक लगाना है । शुभ स्थान में प्रवर्तन भी इसलिए करना है कि, धीरे-धीरे इस क्रिया द्वारा आत्मा बाह्य भावों से संपूर्ण निवृत्त होकर आत्मभाव में स्थिरता प्राप्त करें ।
कायोत्सर्ग में काया को अन्य प्रवृत्ति से रोककर पर्यंकासन या पद्मासन स्वरूप स्थिर मुद्रा में रखना है । इस निश्चित की हुई मुद्रा के अलावा काया की हलन-चलनरूप प्रवृत्ति का त्याग करना है । कायिक चेष्टा के साथ मन का नजदीकी संबंध होने से इस प्रकार काया को स्थिर करने से मन का विक्षेप शांत होता है एवं अव्याक्षिप्त मन परमात्मा के ध्यान में एकाग्र बनता है । इसलिए काउस्सग्गं में कायिक चेष्टा का त्याग करना है ।
वाणी को मौन द्वारा स्थिर करना है । कायोत्सर्ग काल में किसी भी प्रकार की वाणी का व्यापार नहीं करना है, क्योंकि वचन प्रयोग का भी मन के साथ गहरा संबंध है । इसलिए मन को स्थिर करने के लिए मौन की भी आवश्यकता है ।
इसके अतिरिक्त, मन को किसी निश्चित ध्यान में स्थिर करके, उसे चारों ओर जाने से रोकना है अर्थात् कायोत्सर्ग के समय मन में लोगस्स या नवकार मंत्र का ध्यान अथवा कोई भी सूत्र का स्वाध्याय, मंत्र-जाप, भावनाएँ, अरिहंतादि उत्तम पुरुषों की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का भावन, किसी भी पदार्थ विषयक अनुप्रेक्षा, तत्त्व चिंतन, १२ भावनाओं पर अनुप्रेक्षा आदि सब कर सकते हैं । ऐसा होने पर भी प्रतिक्रमणादि क्रिया में लोगस्स वगैरह का जो कायोत्सर्ग करने का कहा गया है, वही करना योग्य है।
संक्षेप में, कायोत्सर्ग में मन-वचन एवं काया को इस तरीके से प्रवृत्त करना चाहिए कि जिसके कारण देहाध्यास टले, इन्द्रियों की चंचलता कम हो जाए, कषायों की वृत्ति क्षीण हो जाए एवं राग-द्वेष का बल खूब कम हो जाए ।