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________________ अनत्थ सूत्र १७९ ४. सर्पदंश : सर्प वगैरह पशुओं का प्राण घातक दंश लगने पर कभी असमाधि या मृत्यु हो; तो उसके निवारण के लिए हो जाने का आगार दिया गया है । ये चार आगार अकस्मात् बननेवाले हैं । इसलिए ये आकस्मिक विभाग में आते हैं । जबकि पूर्व में बताए गए १२ आगार काया को ध्यान में रखकर रखे गए हैं। इसलिए वे कायिक विभाग में आते हैं । जिज्ञासा : किसी भी प्रतिज्ञा में छूट रखना कहाँ तक उचित है ? सत्त्वशाली निरपवाद प्रतिज्ञा का पालन करनेवाले होते हैं । निरपवाद प्रतिज्ञा से ही प्रतिज्ञा परखी जाती है एवं परखने के समय सात्त्विक पुरुष उस परीक्षा को पास कर सकते हैं । तो फिर इस कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा में इतनी सारी छूट किसलिए ? तृप्ति : सात्त्विक पुरुष भी विवेकपूर्ण प्रवृत्ति करे, तो ही आत्महित होता है । विवेक-शून्य प्रवृत्ति कभी सफल नहीं हो सकती । जो कार्य संभव नहीं हो, जिसके करने से अकाल मृत्यु की संभावना हो, असमाधि की समस्या हो और जिससे परलोक की परंपरा बिगड़ने की संभावना हो, ऐसे कार्य को विवेकी पुरुष सामने से कभी स्वीकार नहीं करते । इसलिए, सात्त्विक पुरुष भी अपने शरीर आदि का विचार करके प्रतिज्ञा करते हैं जिससे वे पूर्ण फल प्राप्त कर सकते हैं । विवेक शून्य प्रतिज्ञा मृत्यु का कारण भी बन सकती है । जैनशासन में अविधि से हुई मृत्यु इष्ट नहीं मानी गई है । अभग्गो अविराहिओ हुज मे काउस्सग्गो : इन १६ आगारों के अलावा मेरा काउस्सग्ग अभग्न, अविराधित बने । कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा करने से पहले उपरोक्त १६ आगार रखे जाते हैं, पर उसके अलावा काउस्सग्ग अभग्न तथा अखंडित हो ऐसी प्रार्थना साधक करता
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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