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सूत्र संवेदना
जो लोग कर्मों का नाश करने के लिए श्मशान, शून्यगृह या जंगल में जाकर काया का व्युत्सर्जन (त्याग) करते हैं याने कि कायोत्सर्ग का आश्रय लेते हैं, उनके लिए अधिकतर विचित्र एवं विकट संयोग पैदा होने की संभावना होती है, तब अगर ऐसा लगे कि इन संयोगो में समाधि नहीं टिक पाएगी तो निम्नोक्त चार प्रकार के अपवाद रख सकते हैं ।
१. अग्नि : कायोत्सर्ग करने के लिए मुमुक्षु आत्मा जहाँ स्थिर होता है, उस स्थान में यदि आग लग जाए, तो उस समय कायोत्सर्ग होने के बावजूद वह वहाँ से हट सकता है । वहाँ से हटकर, अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर जाकर बाकी रहा काउस्सग्ग पूर्ण कर सकता है अथवा कभी अग्नि के अंगारे शरीर पर पड़ते हों तो भी हटा जा सकता है, कभी हटते हुए भी अंगारे पड़ते हों तो कंबल ओढ़ सकता है या बैठ भी सकता है एवं अधूरा कायोत्सर्ग वही से शुरु करके पूरा कर सकता है ।
यहाँ यह ख्याल में रखना है कि तब 'नमो अरिहंताणं' बोलकर कायोत्सर्ग नहीं पारना है क्योंकि, कायोत्सर्ग का प्रमाण पूर्ण हो तब 'नमो अरिहंताणं' बोलकर पारने से प्रतिज्ञा पूरी होती है, नहीं तो अधूरी रहती है।
२. पंचेन्द्रिय संबंधी : कायोत्सर्ग करनेवाले साधक की नजर के सामने अगर किसी पंचेन्द्रिय जीव की हत्या होती हो, तो वहाँ खड़े रहने से दया के परिणामों को धक्का लगने की संभावना रहती है । इस तरह परिणाम की धृष्टता न हो, इसलिए चानू कायोत्सर्ग में ही अन्यत्र चले जाए अथवा कायोत्सर्ग चालू हो तब पंचेन्द्रिय जीव की आड पड़ने की संभावना दिखती हो तो तुरंत स्थापनाचार्यजी के बिलकुल पास जाकर खड़े रहकर अधूरा कायोत्सर्ग वही से ही शुरू करके पूर्ण कर सकते हैं ।
३. चोर या राज-भय : कायोत्सर्ग में रहे हुए व्यक्ति को राजा या चोर से किसी भी प्रकार का भय या प्राणांत कष्ट आने की संभावना हो, तो वह वहाँ से हट सकता है । इस हालत में हटने पर भी कायोत्सर्ग भंग नहीं होता क्योंकि कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा इस आगार सहित ही स्वीकार की जाती है।