________________
१७६
सूत्र संवेदना डकार आना, वायु छूटना, भमरी-चक्कर आना या पित्त की अतिशयता से बेहोश (बेभान) हो जाना (मूर्छित हो जाना) - ये चारों क्रियाएँ वायु या पित्त के विशेष प्रकोप से होती हैं तथा बहु निमित्ताधीन हैं । इसलिए उन सबका समावेश अपवाद में किया गया है ।
कभी-कभी अपथ्य (हानिकारक) आहार-विहार, मानसिक आघात या किसी प्रकार के रोग से भी चक्कर आते हैं एवं वे इच्छा या प्रयत्न से नहीं रोके जा सकते और पित्त की अतिशयता के कारण एकाएक किसी भी समय चक्कर आने की संभावना बनी रहती है । वह भी अपने बस की बात नहीं, इसलिए उसका समावेश अपवाद में किया है । इन पदों का उच्चारण करते समय साधक सोचता है,
'सामान्य धातु के वैषम्य को रोकने का प्रयत्न करूँ तो भी वायुपित्त के विशेष प्रकोप को मैं नहीं रोक पाता । इस कारण कायोत्सर्ग में भी डकार, चक्कर जैसी बहुत सी विकृत प्रवृत्तियाँ मुझ से हो जाती हैं। हे प्रभु ! कब ऐसा सत्त्व प्रकट होगा, कब मैं शरीर की लाचारी से मुक्त होकर आत्मभाव में
लीन रहूँगा ।' ४. निश्चित होनेवाले सूक्ष्म आगार : सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं : अंग का सूक्ष्म संचालन होने से ।
शरीर के अंगों का सूक्ष्म स्फुरण, आंख की पलकों का झपकना-पटपटाना, गाल का फड़कना, हाथ पैर के स्नायुओं का हिलना, रोंगटे खड़े होना आदि क्रियाएँ अपनी इच्छा या प्रयत्न के अधीन न होकर शरीर में कभी भी हो सकती हैं । इसलिए उसका समावेश भी अपवाद में किया गया है । सुहुमेहिं खेलसंचालहिं : सूक्ष्म रीति से शरीर के अंदर कफ तथा वायु का संचार होने से ।