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अन्नत्थ सूत्र
अतः कायोत्सर्ग करते समय भी मुझे यह क्रिया कराने की छूट रखनी पडती है । ऐसा दिन कब आयेगा, जब कयोत्सर्ग करके कर्म का नाशकर मैं शरीर का संग छोड़कर अशरीरी बनकर आत्मिक आनन्द की अनुभूति करूँगा ।'
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२. आगंतुक अल्प निमित्त से होनेवाले आगार : खासिएणं छीएणं जंभाइएणं : खांसी आने से, छींक आने से, जंभाई (उबासी) आने से ।
खांसी, छींक या उबासी वायु आदि की विषमता के कारण कभी कभार ही होते हैं। इसलिए ये अल्प निमित्ताधीन हैं और आगंतुक हैं । खांसी आना, अपनी इच्छा या प्रयत्न पर निर्भर नहीं है । जब अंदर से खांसी उत्पन्न होती है, तब उसे रोकना संभव नहीं है ऐसा ही छींकने के बारे में है । छींक भी आगंतुक है एवं हम उसे रोक नहीं सकते । शरीर में अल्प वायु का क्षोभ होने के कारण उबासी आती है । उसे रोकने से भी असमाधि होने की संभावना रहती है । इसलिए उसका भी अपवाद रखा है ।
इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है,
‘मैं श्वासोच्छ्वास को तो नहीं रोक सकता; पर धातु के साम्य को भी नहीं कर पाता, अतः ये सब विकार उत्पन्न होते हैं और मुझ से ऐसी चेष्टाएं हो जाती हैं । कब ऐसा दिन आयेगा कि मैं काया आदि की स्थिरता प्राप्त कर, आत्मभाव में लीन बनूँगा ।'
३. आगंतुक बहु निमित्त से उद्भव होनेवाले आगार : उड्डणं वाय- निसग्गेणं भमलीए पित्त-मुच्छाए : डकार आने से, वायु का संचार होने से, चक्कर आने से, पित्त प्रकोप से होनेवाली मूर्च्छा
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