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________________ १७० सूत्र संवेदना भाव को त्याग करने का प्रयत्न करना है । काया के लालन-पालन का विचार छोड़कर, उसके प्रति उदासीन वृत्ति को धारण करना चाहिए । इसलिए इस समय के दौरान चाहे कैसा भी उपसर्ग या परिषह आए तो भी उसे सहन कर लेना चाहिए । मन को शुभ ध्यान में रखने का प्रयत्न करना चाहिए । यह पूरा सूत्र निम्नलिखित चार भागों में बंटा हुआ है । १. कायोत्सर्ग के आगार २. कायोत्सर्ग का समय ३. कायोत्सर्ग का स्वरूप ४. कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा १. 'अन्नत्थ ऊससिएणं से हुज्ज मे काउस्सग्गो' : तक के पदों में कायोत्सर्ग में दी जानेवाली छूट संबंधी कथन है । कायोत्सर्ग अर्थात् काया के व्यापार का सर्वथा त्याग । काया के व्यापार का सर्वथा त्याग संभव नहीं है क्योंकि श्वासोच्छ्वास, रक्त परिभ्रमण हलन-चलन आदि रूप कायिक क्रियाओं को रोका नहीं जा सकता । अगर रोका जाय तो बड़ा अनर्थ होने की संभावना होती है । इसलिए इस सूत्र द्वारा १२ + ४ = १६ आगार (छूट) रखे गये हैं । आगार रखने का मूल कारण यह है कि “ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि" इन शब्दों से स्थान, मौन एवं ध्यान से मैं काया को वोसिराता हूँ (काया का त्याग करता हूँ) ऐसी जो प्रतिज्ञा की जाती है, उस प्रतिज्ञा का पालन उपर्युक्त आगार के बिना संभव नहीं है। अगर ये आगार न रखे जाएँ, तो प्रतिज्ञा का भंग हो जाता है एवं प्रतिज्ञा के भंग से मृषावाद आदि अनेक दोष लगते हैं । इसीलिए कोई भी प्रतिज्ञा करने से पहले अपने संयोग एवं शक्ति का विचार कर लेना चाहिए तभी प्रतिज्ञा फलवती बनती है। इसीलिए यहाँ प्रतिज्ञा को सफल बनाने के लिए आगार बतलाए हैं । २. “जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताव" इन शब्दों द्वारा इस सूत्र में कायोत्सर्ग की समय मर्यादा बताई गई है । 'जब तक अरिहंत भगवंत को नमस्कार करने स्वरूप 'नमो अरिहंताणं' पद न बोलूँ तब तक मैं कायोत्सर्ग में हूँ' ऐसा कहने द्वारा कायोत्सर्ग की मर्यादा निश्चित होती है । जब कायोत्सर्ग पारना हो (पूर्ण करना हो) तब 'नमो अरिहंताणं'
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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